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________________ ८४ . श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध वा ४ अग्निनिक्षिप्तं अप्रासुकं न प्रतिगृण्हीयात् एतत् सामग्र्यम्। ___ पदार्थ-से-वह। भिक्खू वा- साधु अथवा साध्वी। से जं०-यदि फिर ऐसा जाने कि। असणं वा ४-अशनादिक चतुर्विध आहार जो कि। अगणिनिक्खित्तं-अग्नि पर रखा हुआ है। तहप्पगारं-इस प्रकार के। असणं वा ४-अशनादिक चतुर्विध आहार को। अफासुयं-अप्रासुक जानकर। नो०-ग्रहण न करे। केवली बूया-केवली भगवान कहते हैं। आयाणमेयं-यह कर्म आने का मार्ग है अर्थात् इससे कर्म का बन्ध होता है, यथा। अस्संजए-गृहस्थ। भिक्खुपडियाए-भिक्षु की प्रतिज्ञा से अर्थात् भिक्षु के लिए। उस्सिंचमाणे वा-अग्नि पर रखे हुए पात्र में से निकालता हुआ। निस्सिचमाणे वा-अग्नि पर रखे हुए भाजन से निकलते हुए दुग्धादि को उपशान्त करता हुआ। आमजमाणे वा-अथवा उसे हस्तादि से हिलाता हुआ। पमजमाणे वा-या बार-बार हिलाता हुआ। ओयारेमाणे वा-अग्नि पर से उतारता हुआ। उव्वत्तमाणे वा-अथवा भाजन को तिरछा-टेढ़ा करता हुआ।अगणिजीवे-अग्निकाय-अग्नि के जीवों की।हिंसिजा-हिंसा करता है अर्थात् उसकी इस क्रिया से अग्निकाय की हिंसा होती है। अह-अथ। भिक्खूणं-भिक्षुओ को। पुव्वोवइट्ठा-पूर्वोपदिष्ट-जो पूर्व कह चुके हैं तीर्थंकर भाषित है। एस पइन्ना-यह प्रतिज्ञा। एस हेऊ-यह हेतु। एस कारणे-यह कारण। एसुवएसे-और यह तीर्थकरादि का उपदेश है कि।जं-जो। तहप्पगारं-इस प्रकार का।असणं वा-अशनादिक चतुर्विध आहार है जो कि।अगणिनिक्खित्तं-अग्नि पर रखा हुआ है उसे। अफासुयं-अप्रासुक जानकर। नो० -साधु ग्रहण न करे। एयं-यह। सामग्गियं-साधु वा साध्वी का सामग्र्य-सम्पूर्ण आचार है अर्थात् इसी पर उस का साधुत्व निर्भर है। मूलार्थ–साधु या साध्वी भिक्षादि के निमित्त गृहस्थ के घर में प्रवेश करने पर यदि यह देखे कि अशनादिक चतुर्विध आहार अग्नि पर रखा हुआ है, तो उसे अप्रासुक जानकर साधु ग्रहण न करे। क्योंकि केवली भगवान कहते हैं कि यह कर्म आने का मार्ग है। क्योंकि गृहस्थ साधु के लिए यदि अग्नि पर रखे हुए भाजन में से वस्तु को निकालता है, उबलते हुए दुग्धादि को जल आदि के छींटे देकर शान्त करता है, या अग्नि पर रखे हुए भाजन आदि को नीचे उतारता है अथवा टेढ़ा करता है, तो वह अग्निकाय-अग्नि के जीवों की हिंसा करता है। अतः भिक्षुओं के लिए तीर्थंकर भगवान ने पहले ही कह दिया है कि इसमें यह प्रतिज्ञा है, यह हेतु है, यह कारण है और यह उपदेश है कि जो आहार अग्नि पर रखा हुआ है, उस आहार को अप्रासुक जानकर साधुसाध्वी ग्रहण न करे। हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि यदि किसी गृहस्थ के घर आहार आदि पदार्थ आग पर रखे हुए हैं और उस समय साधु को अपने घर में आया हुआ देखकर कोई गृहस्थ उस अग्नि पर स्थित आहार में से निकाल कर दे, या वह आग पर उबलते हुए दूध को पानी के छींटों से शान्त करके या आग पर से कोई वस्तु उतार कर साधु को दे तो साधु उस आहार को अप्रासुक समझ कर-ग्रहण न करे। क्योंकि इन क्रियाओं से अग्निकायिक जीवों की हिंसा होती है। इसलिए साधु को इस तरह की सावध क्रिया करते हुए कोई व्यक्ति आहार दे तो साधु उसे ग्रहण न करे। कुछ प्रतियों में अफासुयं' के साथ 'अणेसणिज्जं लाभे संते' यह पाठ भी मिलता है। आगमोदय
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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