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________________ प्रथम अध्ययन, उद्देशक ६ " अनेक तरह के दोष लगने की सम्भावना है। इसी तरह मुनि को उस स्थान पर भी खड़े नहीं रहना चाहिए जहां बर्तनों को मांज-धो कर पानी गिराया जाता है, स्नानघर शौचालय या पेशाबघर है। क्योंकि ऐसे स्थान पर खड़े रहने से प्रवचन की जुगुप्सा-घृणा होने की सम्भावना है । और स्नानघर आदि के सामने खड़े होने से गृहस्थों के मन में अनेक तरह की शंकाएं पैदा हो सकती हैं। इसी प्रकार झरोखों, नव निर्मित दीवारों या दीवारों की सन्धि की ओर देखने से साधु के सभ्य व्यवहार में कुछ दोष आता है। I I ७७ भिक्षा ग्रहण करते समय अंगुली आदि से संकेत करके पदार्थ लेने से साधु की रस लोलुपता प्रकट होती है और तर्जना एवं प्रशंसा द्वारा भिक्षा लेने से साधु के अभिमान एवं दीन भाव का प्रदर्शन होता है । अतः साधु को भिक्षा ग्रहण करते समय किसी भी तरह की शारीरिक चेष्टाएं एवं संकेत नहीं करने चाहिएं। इसके अतिरिक्त यदि कोई गृहस्थ साधु को भिक्षा देने से इन्कार कर दे तो साधु को उस पर क्रोध नहीं करना चाहिए और न उन्हें कटु एवं कठोर वचन ही कहना चाहिए। साधु का यह कर्त्तव्य है कि वह बिना कुछ कहे एवं मन में भी किसी तरह की दुर्भावना लाए बिना तथा संक्लेश का संवेदन किए बिना शान्तभाव से गृहस्थ के घर से बाहर आ जाए। इस सूत्र से साधु जीवन की धीरता, गम्भीरता, निरभिमानता, अनासक्ति एवं सहिष्णुता का स्पष्ट परिचय मिलता है और इन्हीं गुणों के विकास में साधुता स्थित रहती है। इसी विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैं मूलम् - अह तत्थ कंचि भुंजमाणं पेहाए गाहावई वा० जाव कम्मकरिं वा से पुव्वामेव आलोइज्ज़ा - आउसोत्ति वा भइणित्ति वा दाहिसि मे इत्तो अन्नयरं भोयणजायं ! से सेवं वयंतस्स परो हत्थं वा मत्तं वा दव्विं वा भायणं वा सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलिज्ज वा पहोइज्ज वा, से पुव्वामेव आलोइज्जा - आउसोत्ति वा भइणित्ति वा ! मा एयं तुमं हत्थं वा ४ सीओदगवियडेण वा २ उच्छोलेहि वा २ अभिकंखसि मे दाउं एवमेव दलयाहि से सेवं वयंतस्स परोहत्थं वा ४ सीओ० उसि० उच्छोलित्ता पहोइत्ता आहट्टु दलइज्जा तहप्पगारेणं पुरेकम्मएणं हत्थेण वा ४ असणं वा ४ अफासुयं जाव नो पडिग्गाहिज्जा । अह पुणेवं जाणिज्जा नो पुरेकम्मएणं उदउल्लेणं तहप्पगारेणं वा उदउल्लेण (ससिणिद्वेण ) वा हत्थेण वा ४ असणं वा ४ अफासुयं जाव नो पडिग्गाहिज्जा । अह पुणेवं जाणिज्जा-नो उदउल्लेण ससिणिद्धेण सेसं तं चेव, एवं ससरक्खे उदउल्ले ससिणिद्धे मट्टियाउसे । हरियाले हिंगुलुए मणोसिला अंजणे लोणे ॥ १ ॥
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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