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________________ ७१ प्रथम अध्ययन, उद्देशक ५ होता है। यह टब्बाकार का अभिमत है। .. वृत्तिकार एवं टब्बाकार दोनों के अभिमतों में टब्बाकार का अभिमत आगम सम्मत प्रतीत होता है। 'गच्छेज्जा' और 'आउसंतो समणा' शब्द टब्बाकार के अभिमत को ही पुष्ट करते हैं। यदि अन्यमत के साधुओं के साथ ही आहार करना होता तो वे सब वहीं गृहस्थ के द्वार पर ही उपस्थित थे, अतः कहीं अन्यत्र जाकर उन्हें दिखाने का कोई प्रसंग उपस्थित नहीं होता और साधु की मर्यादा है कि वह गृहस्थ के घर से ग्रहण किया गया आहार अपने सांभोगिक बड़े साधुओं को दिखाकर सबको आहार करने की प्रार्थना करके फिर आहार ग्रहण करे और यह बात 'गच्छेज्जा' शब्द से स्पष्ट होती है और — आयुष्मन् श्रमणो' शब्द भी सांभोगिक साधुओं के लिए प्रयुक्त हुआ है, ऐसा इस पाठ से स्पष्ट परिलक्षित होता है। कुछ हस्त लिखित प्रतियां तथा रवजी भाई देवराज द्वारा प्रकाशित भाषान्तर सहित आचारांग में निम्न पाठ विशेष रूप से मिलता है "केवली बूया ........ . . आयाणमेयं"॥५७३॥ ____ "पुरा पेहाए तस्सट्ठाए परो असणं वा ४ आहटु दलएजा अहभिक्खूणं पुव्वोवादिट्ठा एस पतिन्ना, एस हेउ, एस डवएसो जं णो तेसिं संलोए सपडिदुवारे चिट्ठेजा से तमायाए एगंतमवक्कमिज्जा २ अणावायमसंलोंए चिट्ठेजा।"॥५७४॥ . इसका तात्पर्य यह है कि केवली भगवान ने इसे कर्म आने का मार्ग कहा है। (अन्य मत के भिक्षुओं और भिखारियों को लांघकर गृहस्थ के घर में जाने तथा उनके सामने खड़े रहने को)। क्योंकि यदि उनके सामने खड़े हुए मुनि को गृहस्थ देखेगा तो वह उसे वहां आहार आदि पदार्थ लाकर देगा। अतः उनके सामने खड़ा न होने में यह कारण रहा हुआ है तथा यह पूर्वोपदिष्ट है कि साधु उनके सामने खड़ा न रहे । इससे अनेक दोष लगने की संभावना है। आगमोदय समिति से प्रकाशित आचारांग में उक्त पाठ नहीं है। अब गृहस्थ के घर में प्रवेश के सम्बन्ध में सूत्रकार कहते हैंमूलम्- से भिक्खू वा से जं पुण जाणिज्जा-समणं वा माहणं वा २ एणे आलवें टीका में कह्यो गृहस्थ साधु ने अणे भिख्यार्यो ने अशन आदि भेलो ते उत्सर्ग थकी तो न लई अणे दर्भिक्षादिक कारणे लीइं ते सूत्र विरुद्ध, पाठमें कारण को नाम चाल्यो न थी, अणे वृत्तिकार अण बखाणो बली एह नूं कह युं अशन आदिक साधु बहरी ते श्रमणादिक समीपे आवी इम कहे तुम्ह सर्व भणी गृहस्थ ए अशनादिक दीधो ते तुम्हें भोगवो बैंहचो एहq करके ते अन्य तीर्थिक नं साधु इम किम कहे जे ए अशनादिक तुम्हे भोगवो बैहचो, एहतो प्रत्यक्ष सावध वचन छे, ते माटे एहबुं जणाय छे-जे श्रमण ब्राह्मणादिक परतीर्थिक गृहस्थ रे घरे देखी साधु एकान्त जई उभो रहे तिण स्थान के अशन आदिक छे ते गृहस्थ आपे कहे सर्व णे मे दीघो ते सर्व घणा सम्भोगिक साधु सम्भवे, पिन पेली भेला अन्य तीर्थिक न सम्भवइ, ते अशनादिक कोई एक साधु वहरी और घणा संभोगिक साधु अलग उभाछे-ते परते साधु आवी कहे एह आहार सर्व भणी गृहस्थे दीधो, तु मे भोगवो अणे बैंहचो-ते सम्भोगी साधु ने इज कहबो कल्पे, ते भणी एह संभोगी साधु ने इज लीधो सम्भवे पिन परतीर्थिक ने न सम्भवे, बली एह अलावा नो पाठनो अर्थ कोई अनेरे पुकारे होई ते पिन केवली कहे ते सत छ, मम दोषो न दीयते इति।
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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