________________
७०
श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध
बैठकर अनासक्त भाव से आहार करे।
प्रस्तुत पाठ पर यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि क्या जैन मुनि शाक्यादि अन्य मत के भिक्षुओं के साथ बैठकर आहार कर सकता है ? अपने द्वारा ग्रहण किया गया आहार उन्हें दे सकता है ?
इस पर वृत्तिकार का यह अभिमत है कि उत्सर्ग मार्ग में तो साधु ऐसे आहार को स्वीकार ही नहीं करता। दुर्भिक्ष आदि के प्रसंग पर अपवाद में वह इस तरह का आहार ग्रहण कर सकता है। परन्तु, इतना होने पर भी उसे अन्य मत के भिक्षुओं के साथ बैठकर नहीं खाना चाहिए। किन्तु पार्श्वस्थ जैन मुनि या सांभोगिक हैं, उन्हें ओघ आलोचना देकर उनके साथ खा सकता है।
___परन्तु, प्रस्तुत पाठ में न तो दुर्भिक्ष आदि के प्रसंग का उल्लेख है और न पार्श्वस्थ आदि साधुओं का ही उल्लेख है। और यदि आगम के अनुसार सोचा जाए तो साधु ग्रामपिंडोलक (भिखारियों) अन्य मत के भिक्षुओं एवं पार्श्वस्थ साधुओं के साथ बैठकर खा भी नहीं सकता और न उनके आहार का लेन-देन ही कर सकता है। आचारांग सूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध में अन्य मत के साधुओं के साथ आहार पानी के लेन-देन का स्पष्ट निषेध किया गया है। ऐसी स्थिति में वृत्तिकार का अभिमत अवश्य ही विचारणीय है।
आगम में एक स्थान पर गौतम स्वामी मुनि उदक पेढ़ाल पुत्र को कहते हैं कि हे श्रमण ! मुनि किसी गृहस्थ या अन्यतीर्थि (मत के) साधु के साथ आहार नहीं कर सकता। यदि वह गृहस्थ या अन्य मत का साधु दीक्षा ग्रहण कर ले तो फिर उसके साथ आहार कर सकता है। परन्तु, यदि वह किसी कारणवश दीक्षा का त्याग करके पुनः अपने पूर्व रूप में परिवर्तित हो जाए तो फिर उसके साथ साधु आहार नहीं कर सकता। इससे स्पष्ट होता है कि मुनि का आहार-पानी का सम्बन्ध अपने समान आचारविचारशील साधु के साथ ही है, अन्य के साथ नहीं।
टब्बाकार वृत्तिकार के कथन के विरोध में है। टब्बाकार का कहना है कि वृत्तिकार ने जिस अपवाद का उल्लेख किया है, वह अपवाद मूल आगम में उल्लिखित नहीं है और दूसरे में अन्य मत के साधुओं से जाकर यह कहना कि गृहस्थ ने यह आहार हम सबके लिए दिया है, अतः साथ बैठकर खा लें या परस्पर बांट लें, प्रत्यक्षतः सावध है। अतः जैन मुनि ऐसी भाषा का प्रयोग नहीं कर सकता। अतः इसका तात्पर्य यह है कि गृहस्थ ने जो आहार दिया वह अन्य मत के साधुओं को सम्बोधित करके नहीं, प्रत्युत उक्त साधु के साथ के अन्य साम्भोगिक साधुओं को सम्बोधित करके दिया है। अतः वह अपने साथ के अन्य मुनियों के पास जाकर उन्हें वह आहार दिखाए और उनके साथ या उन सबका समविभाग करके उस आहार को खाए। इस तरह यह सारा प्रसंग अपने समान आचार वाले मुनियों के लिए ही घटित
१ तत्र परतीर्थिकैः सार्द्ध न भोक्तव्यं स्वयूथ्यैश्च पार्श्वस्थादिभिः सह, सम्भोगिकैः सहौघा-लोचनां दत्वा भुजानानामयं विधिः।
-श्री आचाराङ्ग सूत्र, २,१,५, २९ वृत्ति। २ सूत्रकृतांग सूत्र, २,७