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________________ श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध ६८ खड़ा न हो किन्तु । तमायाय - भिक्षा के लिए आये हुए उन श्रमणादि को जानकर । एगंतमवक्कमिज्जा - एकान्त स्थान में जाकर। अणावायमसंलोए-जहां कोई न आता हो और न देखता हो ऐसे स्थान पर । चिट्ठिज्जा - ठहर जाए। से-वह गृहस्थ। से-उस भिक्षु को जो कि । अणावायमसंलोए चिट्ठमाणस्स - निर्जन स्थान में स्थित है। असणं वा ४- अशनादिक चतुर्विध आहार । आहट्टु लाकर । दलइज्जा-दे । य-फिर से - वह गृहस्थ । एवंइस प्रकार। वइज्जा-बोले। आउसंतो समणा - हे आयुष्मन्त श्रमणो ! इमे यह । असणे वा ४- अशनादिक चतुर्विध आहार। भे-आप। सव्वजणाए - सबके लिए अर्थात् सब भिक्षुओं के लिए। निसट्ठे-दिया है। तं - उस आहार को। भुंजह सब इकट्ठे बैठ कर खा लें। वा अथवा - णं-वाक्यालंकार में है। परिभाएह वा णं - आपस में बांट लें। चेगइओ - परन्तु एकान्त में खड़े साधुओं को जानकर । तं - उस आहार को । पडिग्गाहित्ता -लेकर । तुसिणीओ - मौन रहकर । उवेहिज्जा - उत्प्रेक्षा करे यथा । अवियाई - अपि सम्भावनार्थक है । एवं यह आहार । ममेव सिया- मुझे दिया है अतः मेरे ही लिए है। यदि ऐसा विचार करे तो । माइट्ठाणं संफासे- मातृ स्थान माया-कपट स्थान का स्पर्श होता है - उक्त दोष लगता है अतः। एवं इस प्रकार । नो करिज्जा न करे किन्तु । सेवह भिक्षु । तमाया - उस आहार को लेकर । तत्थ - जहां पर वे श्रमणादि खड़े हैं वहां पर । गच्छिज्जा - जाए और वहां जाकर। से- वह भिक्षु । पुव्वामेव पहले ही उन्हें । आलोइज्जा - उस आहार को दिखाए और कहे। आउसंतो समणा - आयुष्मन्त श्रमणो ! इमे- यह । असणे वा ४- अशनादिक चतुर्विध आहार । भे सव्वजणाए हम सब के लिए। निसिट्ठे-दिया है। तं - इस आहार को । भुंजह वा णं-सब इकट्ठे मिल कर खालें अथवा । जावयावत्। परिभाएह वा णं-विभाग कर लें; बांट लें। सेणमेवं वयंतं-तब इस प्रकार बोलते हुए उस साधु को यदि । परो वइज्जा - कोई साधु इस प्रकार कहे । आउसंतो समणा - आयुष्मन् श्रमण ! तुमं चेव-तुम ही । णंपूर्ववत् । परिभाएहि-विभाग कर दो - अर्थात् इस आहार को तुम ही बांट दो ! तब से वह भिक्षु । तत्थ - वहां पर । परिभाएमाणे- विभाग करता हुआ । अप्पणो अपने लिए। खद्धं २ - प्रचुर अत्यधिक । डायं २ - सुन्दर शाक उसढं २-वर्णादि गुणों से युक्त । रसियं रस युक्त । मणुन्नं २ - मनोज्ञ । निद्धं २ - स्निग्ध और । लुक्खं २ रूक्ष आहार को। नो-न रखे किन्तु । से- वह भिक्षु । तत्थ - उस आहार के विषय में । अमुच्छिए-अमूर्छित-मूर्छा रहित। अगिद्धे - अभिकांक्षा रहित । अगढिए - विशिष्ट गृद्धि रहित । अणज्झोववन्ने - और आसक्ति रहित होकर । बहुसममेव - सबको समान रूप से अर्थात् जो सब के लिए समान | परिभाइज्जा विभाग करदे तथा । से गं परिभाएमाणं-‍ -समान रूप से विभाग कर बांटते हुए उस साधु को यदि । परो वइज्जा- कोई कहे कि । आउसंतो समणा ! - आयुष्मन् श्रमण ! माणं तुमं परिभाएहि तुम मत विभाग करो ! सव्वेगइआ ठिया उ- हम सब इकट्ठे बैठकर। भुक्खामो - खाएंगे और । पाहामो वा पियेंगे । से- वह भिक्षु । तत्थ - वहां पर । ' 1 भुंजमाणे - उस आहार को खाता हुआ। अप्पणो अपने लिए। खद्धं २ - प्रचुर । जाव - यावत् । लुक्खं रूक्ष आहार को । नोग्रहण न करे। किन्तु । से वह भिक्षु । तत्थ - उस आहार विषयक। अमुच्छिए-अमूर्छित-मूर्छा रहित होकर । बहुसममेवसबके समान ही । भुंजिज्जा वा खाए अथवा | पाइज्जा वा पीए । 1 मूलार्थ - साधु या साध्वी भिक्षा के निमित्त गृहपति के कुल में प्रवेश करते हुए यदि यह जाने कि उसके जाने से पहले ही गृहपति कुल में शाक्यादि भिक्षु, ब्राह्मण ग्रामयाचक और अतिथि
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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