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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध ने अपने प्रमुख शिष्य जम्बू को आयुष्मन् शब्द से संबोधित किया है।
'आउसं' शब्द संबोधन के रूप में प्रयुक्त होता है, इस बात का हम विवेचन कर चुके हैं। परन्तु इसके अतिरिक्त इसका दूसरे रूप में प्रयोग घटित होता है। जब “आउसं और तेणं" दोनों शब्दों को अलग-अलग न करके इनका समस्त पद के रूप में प्रयोग करते हैं, तो इस ‘आउसंतेणं' पद का संस्कृत रूप 'आयुष्मता' बनता है और फिर यह शब्द संबोधन के रूप में न रहकर 'भगवया' शब्द का विशेषण बन जाता है
और इसका अर्थ होता है-आयुष्य वाले भगवान ने। 'आउसंतेणं' शब्द को समस्त पद मानने के पीछे सैद्धान्तिक रहस्य भी अन्तर्निहित है। 'सुयं मे' इन पदों से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि श्रुत ज्ञान किसी व्यक्ति द्वारा ही दिया गया है। परन्तु इस पद से सूर्य के प्रखर प्रकाश की तरह जैन दर्शन की यह मान्यता स्पष्ट कर दी गई है कि श्रुतज्ञान का प्रकाश आयु कर्म वाले शरीर-युक्त तीर्थंकर भगवान ही फैलाते हैं। उत्तराध्ययन सूत्र में केशी श्रमण द्वारा पूछे गए “घोर अँधेरे में निवसित संसार के प्राणियों के जीवन में कौन प्रकाश करता है?” इस प्रश्न का उत्तर देते हुए गौतम स्वामी ने कहा कि जब सूर्य आकाश में उदित होता है, तो सारे लोक को प्रकाशित कर देता है। इसके बाद केशी श्रमण के 'वह सूर्य कौन है?' इस संशय का निराकरण करते हुए श्री गौतम स्वामी ने कहा कि जिसका संसार क्षय हो चुका है, ऐसा जिन, सर्वज्ञरूपी सहस्ररश्मि (सूर्य) उदित होगा और वह समस्त प्राणि-जगत में धर्म का उद्योत करेगा, ज्ञान का प्रकाश फैलाएगा। इससे स्पष्ट हो जाता है कि श्रुत ज्ञान का प्रकाश शरीरयुक्त तीर्थंकर ही फैलाते हैं, न कि सिद्ध भगवान। सिद्धं भगवान शरीर-रहित हैं और श्रुत ज्ञान का उपदेश बिना मुख के दिया नहीं जा सकता और मुख शरीर का ही एक अंग है। अतः सिद्ध भगवान श्रुतज्ञान के उपदेशक नहीं हो सकते।
इस तरह ‘आउसंतेणं', पद के द्वारा यह स्पष्ट कर दिया गया कि दुनिया का कोई भी शास्त्र ईश्वर-कृत नहीं है। वैदिक दर्शन वेद को अपौरुषेय मानता है। उसका विश्वास है कि सृष्टि के प्रारम्भ में ईश्वर ने अंगिरा आदि ऋषियों को वेद का उपदेश दिया था। परन्तु यह कल्पना सर्वथा निराधार है। हम इस बात को पहले ही स्पष्ट कर चुके हैं कि उपदेश मुख द्वारा दिया जाता है और मुख शरीर का ही.एक
1. उत्तराध्ययन सूत्र, 23, 75-78