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________________ अष्टम अध्ययन, उद्देशक 8 779 वृद्धि है, अतः कषाय का अर्थ है-संसार-परिभ्रमण में वृद्धि होना। आहार से स्थूल शरीर को पोषण मिलता है और कषाय से सूक्ष्म कार्मण शरीर परिपुष्ट होता है, जबकि साधना का उद्देश्य शरीर-रहित होना है। अतः उसके लिए स्थूल एवं सूक्ष्म शरीर को परिपुष्ट करने वाले आहार एवं कषाय को कम करना जरूरी है, क्योंकि इनका एकदम त्याग कर सकना कठिन है। अतः संलेखना काल में कषायों एवं आहार को कम करते-करते एक दिन कषायों से सर्वथा निवृत्त हो जाना ही साधना की सफलता है। . ____ कषायों पर विजय पाने के लिए सहिष्णुता का होना आवश्यक है। परीषहों के समय विचिलत नहीं होने वाला साधक ही कषायों से निवृत्त हो सकता है। इस तरह कषाय एवं आहार को घटाते हुए साधक अपनी साधना में संलग्न रहे। यदि आहार की कमी से मूर्छा आदि आने लगे और स्वाध्याय आदि की साधना भली-भांति नहीं हो सकती हो तो साधक आहार कर ले और यदि आहार करने से समाधि भंग होती हो तो वह आहार का सर्वथा त्याग करके अनशन व्रत (संथारे) को स्वीकार कर ले। परन्तु ऐसा चिन्तन न करे कि मैं संलेखना के तप को तोड़कर आहार कर लूं और फिर तप आरम्भ कर लूंगा। इसी विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैंमूलम्- जीवियं नाभिकंखिज्जा, मरणं नो वि पत्थए। दुहओऽवि न सज्जिज्जा, जीविए मरणे तहा॥4॥ छाया- जीवितं नाभिकांक्षेत् मरणं नापिप्रार्थयेत्। - उभयतोपि न सज्जेत् जीविते मरणे तथा॥ पदार्थ-जीवियं-जीवन को। नाभिकंखिज्जा-न चाहे। नोऽवि-और न। मरणं पत्थए-मृत्यु की प्रार्थना करे। जीविए तहा मरणे-जीवन तथा मृत्यु। दुहओवि-दोनों में। न सज्जिज्जा-आसक्ति न रखे। मूलार्थ-संलेखना एवं अनशन में स्थित साधु न जीने की अभिलाषा रखे और न मरने की प्रार्थना करे। वह जीवन तथा मरण दोनों में अनासक्त रहे।
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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