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षष्ठ अध्ययन, उद्देशक 2
परीषहों को सहन करे। भो!-यह आमन्त्रण अर्थ मे है अतः हे लोगो! एए-ये-परीषहों को सहन करने वाले। णगिणा-नग्न । वुत्ता-कहे गए हैं। जे-जो। लोगंसि-लोक में। अणागमणधम्मिणो-दीक्षा ले कर घर में वापिस नहीं आने वाले। आणाएआज्ञा। मामगं-मेरा। धम्म-धर्म है, इस प्रकार से धर्म का सम्यक्तया पालन करे। एस-यह अनन्तरोक्त। उत्तरवाए-उत्कृष्ट वाद। इह-इस मनुष्य लोक में। माणवाणं-मनुष्यों का। वियाहिए-कथन किया गया है, और। इत्थावरए-कर्म नष्ट करने के उपाय संयम में रत होकर। तं-आठ प्रकार के कर्मों का। झोसमाणे-क्षय करता हुआ संयम में विचरे। आयाणिज्जं-आदानीयं कर्म की। परिन्नाय-मूल तथा उत्तर प्रकृतियों को जानकर फिर। परियाएण-संयम पर्याय से इनको। विगिंचंइ-क्षय करता है। इह-इस प्रवचन में। एगेसिं-कई एक हलुकर्मी जीवों की। एगचरिया-एकाकी विहार प्रतिमा। होइ-होती है। तत्थियरा-उस एकांकी विहार प्रतिमा में अन्य सामान्य साधुओं से विशिष्टता होती है। इयरेहि-इतर आयां कुलेहिं-कुलों में। सुद्धेसणाए-शुद्धैषणा से। सव्वेसणाए-सर्व प्रकार के दोषों से रहित होने से। सर्वैषणासे-उसे पालन करे, अतः। मेहावी-बुद्धिमान। परिव्वाए-संयम मार्ग में विचरे अर्थात् संयम में स्थित रहे। सुभिं-इतर कुल में यदि सुगन्ध वाला आहार मिले। अदुवा-अथवा। दुन्मि-दुर्गन्ध युक्त आहार मिले तो उसमें राग-द्वेष न करे। अदुवा-अथवा। भेरा-श्मशानादि में यदि राक्षसादि के भयानक शब्द हों तो उन्हें सहन करे तथा। भेरवा-भयोत्पन्न करने वाले। पाणाप्राणी। पाणे-अन्य प्राणियों को। किलेसंति-पीड़ित-दुःखी करते हैं, अतः हे शिष्यो! ते-उन। फासे-दुःख रूप स्पर्शों से। पुट्ठो-स्पृष्ट हुआ फिर उन स्पर्शों को। धीरे-तू धैर्यवान बन कर। अहियासिज्जासि-सहन कर। तिबेमि-इस प्रकार मैं कहता हूँ।
मूलार्थ-हे शिष्यो! परीषहों के सहन की शंका को सर्वथा छोड़ कर समित दर्शन-सम्यग् दृष्टि सम्पन्न होने को भाव नग्नता कहते हैं, जो इस मनुष्य लोक में दीक्षित होकर पुनः घर में आने की अभिलाषा नहीं रखते। इस मनुष्य लोक में यह उत्कृष्ट वाद कथन किया गया है कि भगवान की आज्ञा ही मेरा धर्म है। इस जिन शासन में संलग्न व्यक्ति आठ प्रकार के कर्मों का क्षय करता हुआ, कर्मों के भेदों