SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 690
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पंचम अध्ययन, उद्देशक 3 601 प्रकार से लोक की विचारणा करता हुआ कर्म के स्वरूप को जानकर सर्व प्रकार से हिंसादि क्रियायें नहीं करता, किन्तु अपने आत्मा को संयम में रखता हुआ पापकर्म के करने में धृष्टता नहीं करता। प्रत्येक प्राणी साता-सुख का इच्छुक है, इस प्रकार की विचारणा से किसी भी जीव की हिंसा नहीं करता, एवं यश की इच्छा न करने वाला किंचिन्मात्र भी पापकर्म का आरम्भ नहीं करता, वह सर्वलोक में सभी जीवों को समभाव से देखता है, जिसने एक मोक्ष की ओर दृष्टि (मुख) की हुई है, वह विदिक् प्रतीर्ण है (दिशा मोक्ष नाम है और विदिशा संसार का) अर्थात् वह संसार से उत्तीर्ण हो गया है, इसलिए वही हिंसादि क्रियाओं से अथवा स्त्रियों के संसर्ग से निवृत्त होकर शान्तभाव से मोक्षपथ में विचरता है। हिन्दी-विवेचन .. साधना के लिए उपयुक्त सामग्री का मिलना भी आवश्यक है। योग्य साधन के अभाव में साध्य सिद्ध नहीं हो पाता। इसलिए प्रस्तुत सूत्र में योग्य साधनों का उल्लेख किया है। संयम साधना के लिए सब से प्रमुख है औदारिक शरीर-मनुष्य का शरीर । मनुष्य ही संयम को स्वीकार कर सकता है। औदारिक शरीर में संपूर्ण अंगोपांग हैं एवं स्वस्थ होने पर ही वह धर्म साधना में सहायक हो सकेगा। अंगोपांग की कमी एवं अस्वस्थ अवस्था में मनुष्य को संयम के पालन करने में कठिनता होती है। संयम पालन के योग्य सम्पूर्ण इन्द्रियों से युक्त स्वस्थ शरीर का प्राप्त होना दुर्लभ है। प्रबल पुण्योदय से ही सम्पूर्ण अंगोपांगों से युक्त स्वस्थ शरीर उपलब्ध होता है। फिर भी कुछ प्रमत्त प्राणी विषय-भोगों में आसक्त होकर उसका दुरुपयोग करके जन्म-मरण को बढ़ाते हैं। कर्मों का बन्ध एवं क्षय दोनों आत्मा के अध्यवसायों पर आधारित हैं। साधक शुभ अध्यवसायों-परिणामों के द्वारा पूर्व बँधे हुए कर्मों का क्षय करके शीघ्र ही मुक्त हो जाता है, क्योंकि वह साधना किसी प्रकार की आकांक्षा, लालसा एवं यश आदि पाने की अभिलाषा से नहीं करता, केवल कर्मों की निर्जरा के लिए ही वह तप-संयम की साधना करता है। अतः वह उक्त साधना के द्वारा कर्मबन्धन से मुक्त हो जाता है। . अज्ञानी प्राणी प्रमाद के वश विषय-वासना में आसक्त रहते हैं। विषयों की पूर्ति
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy