________________
शस्त्रों-कषायों एवं द्रव्य-शस्त्रों-हिंसा के साधनों का त्याग करके संयम-साधना में संलग्न रहना चाहिए।
चतुर्थ अध्ययन
प्रस्तुत अध्ययन का नाम सम्यक्त्व है। इसके चार उद्देशक हैं। सम्यक्त्व का अर्थ है-श्रद्धा, निष्ठा, विश्वास। प्रश्न हो सकता है कि साधक किस पर श्रद्धा करे, निष्ठा रखे। इसका उत्तर प्रथम उद्देशक के प्रथम सूत्र में दिया गया है। यह सूत्र बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। इस एक सूत्र में जैन दर्शन का सार समाविष्ट है। वह सूत्र यह है-“अतीत, अनागत एवं वर्तमान काल के सभी तीर्थंकरों का कथन है कि सर्व प्राण, सर्व भूत, सर्व जीव और सर्व सत्त्व की हिंसा नहीं करनी चाहिए। उन्हें पीड़ा एवं संताप नहीं देना चाहिए। यही धर्म शुद्ध है, नित्य है, ध्रुव है और शाश्वत है। अहिंसा की इस श्रद्धा को, निष्ठा को, विश्वास को प्राप्त करके साधक अपनी आचरण की शक्ति को गोपन न करे, उसे छिपाए नहीं और लोकैषणा एवं लोक-प्रशंसा की भी इच्छा न करे।” समकित या सम्यक्त्व का अर्थ है-अहिंसा, दया, सत्य आदि सिद्धांतों पर श्रद्धा रखना एवं यथावसर उन्हें आचरण में उतारने का प्रयत्न करना।
द्वितीय उद्देशक के प्रारम्भ में इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है कि आस्रव एवं संवर किसी स्थान विशेष में आबद्ध नहीं हैं। “जो धर्म-स्थान संवर के कारण हैं, साधन हैं, वहां आस्रव हो सकता है और जो स्थान आस्रव-कर्म के आने के द्वार हैं, वहां संवर की साधना भी हो सकती है।” कहने का तात्पर्य यह है कि आस्रव एवं संवर का आधार एकान्त-रूप से स्थान एवं क्रिया नहीं, बल्कि क्रिया के साथ साधक की शुभाशुभ या शुद्ध भावना है। यदि भावना में विशुद्धता है, राग-द्वेष से रहित परिणाम है, तो क्रिया में बाह्य रूप से हिंसा होने पर भी उससे कर्मबन्ध नहीं होता
और यदि भावना में अविशुद्धता है, कषायों की आग प्रज्ज्वलित है, तो वह सामायिक भवन में सामायिक करते हुए भी पापकर्म का बन्ध कर लेता है। अतः साधक को आस्रव एवं संवर के मूलभूत साधन में विश्वास रखकर अपनी भावना को विशुद्ध एवं राग-द्वेष से रहित बनाने का प्रयत्न करना चाहिए।
तृतीय उद्देशक में बताया गया है कि भाव-विशुद्धि से संवर होता है, कर्मों का आना रुकता है। परन्तु मुक्ति के लिए यह भी आवश्यक है कि जो पुरातन कर्म