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पंचम अध्ययन, उद्देशक 3 - निष्कर्म बनता है। अतः बुद्धिमान व्यक्ति प्रबुद्ध पुरुषों के आर्य वचन सुनकर समभाव एवं अपरिग्रह को स्वीकार करते हैं। ___“समियाए धम्मे, आरिएहिं पवेइए" का अर्थ है-यह समता रूप धर्म आर्य-तीर्थंकर भगवान द्वारा प्ररूपित है। अहिंसा अपरिग्रह आदि भी समता के ही रूप हैं। अहिंसक एवं अपरिग्रही-अनासक्त व्यक्ति ही शत्रु और मित्र के प्रति समभाव रख सकता है। • जिसके जीवन में अहिंसा, दया, करुणा का अभाव है तथा पदार्थों के प्राप्त करने की अभिलाषा बनी हुई है, तो वह व्यक्ति किसी भी प्राणी के प्रति समभाव नहीं रख सकता। अतः हिंसा, परिग्रह आदि दोषों का त्यागी व्यक्ति ही समभाव की साधना कर सकता है। उसके मन में छोटे-बड़े का या शत्रु-मित्र का कोई भेद नहीं रहता। वह सब व्यक्तियों को समान भाव से कल्याण का मार्ग बताता है, उसकी उपदेश धारा में राजा-रंक या छूत-अछूत का भेद नहीं होता। वह जो बात धनवान से कहता है, वही हितकर उपदेशक एक दर-दर के भिखारी को भी देता है। इससे स्पष्ट है कि भगवान की वाणी में समभाव की धारा बहती रहती है। क्योंकि उनका जीवन हिंसा, परिग्रह आदि दोषों से ऊपर उठा हुआ है और उन्होंने हिंसा आदि दोषों के पनपने के कारण राग-द्वेष का क्षय कर दिया है। अतः हिंसा, परिग्रह आदि दोषों से रहित व्यक्ति ही आर्य हो सकता है। ___ यह समता एवं अपरिग्रह की साधना का मार्ग ऐसे आर्य पुरुषों द्वारा कहा गया है, जिन्होंने समभाव के द्वारा कर्म बन्ध की परम्परा का उच्छेद करके निष्कर्म बनने की ओर कदम बढ़ाया है। इससे स्पष्ट है कि समभाव की साधना से जीवन में अहिंसा, अपरिग्रह आदि आत्म गुणों का विकास होता है और पूर्व में बंधे हुए कर्मों का क्षय होकर आत्मा निष्कर्म बन जाता है। कर्म क्षय का यह मार्ग अन्य मत-मतान्तर में नहीं मिलता, क्योंकि अन्य मत-मतान्तर में पूर्ण अहिंसा एवं अपरिग्रह की साधना को स्वीकार नहीं किया गया है। अतः उसके बिना जीवन में समभाव नहीं आता और समभाव के बिना कर्म का क्षय नहीं होता। इस दृष्टि से कहा गया है कि अन्य मत-मतान्तर में बताई गई साधना से कर्म परंपरा का नाश होना दुष्कार है। ___ इसलिए साधक को अपरिग्रह की साधना में प्रमाद नहीं करना चाहिए और
1. जहा पुणस्स कत्थइ तहा तुच्छस्स कत्थइ।