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________________ 572 श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध - छाया-संशयं परिजानतः संसारः परिजातो भवति, संशयमपरिजानतः संसारोऽपरिज्ञातो भवति। पदार्थ-संसयं-जो संशय को। परिआणयो-जानता है, वह। संसारे-संसार के स्वरूप का। परिन्नाएभवइ-जानता है। जोसंसयं-संशय को। अपरियाणओनहीं जानता है, वह। संसारे-संसार को भी। अपरिन्नाए भवइ-नहीं जानता है। मूलार्थ-जो व्यक्ति संशय को जानता है, वह संसार के स्वरूप का परिज्ञाता होता है और जो संशय को नहीं जानता है, वह संसार के स्वरूप को भी नहीं जानता। हिन्दी-विवेचन प्रस्तुत सूत्र में पदार्थ ज्ञान और संशय का अविनाभाव संबन्ध माना गया है। यहां संशय का अर्थ है-पदार्थ के यथार्थ स्वरूप को जानने की जिज्ञासा वृत्ति। इससे स्पष्ट होता है कि संशय ज्ञान के विकास का कारण भी है। जब मन में जानने की जिज्ञासा वृत्ति उबुद्ध होती है, तो मनुष्य उस ओर प्रवृत्त होता है। इस प्रकार वह ज्ञान के क्षेत्र में निरन्तर आगे बढ़ता रहता है। ___ संशय-जिज्ञासा वृत्ति दो प्रकार की होती है-1. अर्थगत और 2. अनर्थगत। मोक्ष एवं मोक्ष के कारण भूत संयम आदि को जानने की जिज्ञासा वृत्ति को अर्थगत संशय कहते हैं और संसार एवं संसार परिभ्रमण के कारणों को जानने की जिज्ञासा वृत्ति को अनर्थगत संशय कहते हैं। दोनों प्रकार के संशय से ज्ञान में अभिवृद्धि होती है और संसार एवं मोक्ष दोनों के यथार्थ स्वरूप हो जानने वाला व्यक्ति ही हेय वस्तु का त्याग करके उपादेय को स्वीकार करता है। इसलिय यह कहा गया है कि जो व्यक्ति संशय को जानता है, वह संसार के स्वरूप को जानता है और जो संशय को नहीं जानता है, वह संसार को यथार्थतः नहीं जान सकता। संशय ज्ञान कराने में सहायक है। परन्तु यदि वह जिज्ञासा की सरल भावना का परित्याग करके केवल सन्देह-शंका करते रहने की कुटिल वृत्ति अपनाता है, तो वह संशय पतन का कारण बन जाता है। उससे पदार्थ ज्ञान नहीं होता, अपितु व्यक्ति और अधिक अज्ञान अन्धकार से आवृत हो जाता है। इसी दृष्टि से कहा गया.
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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