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पंचम अध्ययन, उद्देशक 1
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छाया-यावन्तः केचन लोके विपरामृशन्ति अर्थायानाय एतेषु विपरामृशन्ति गुरवः तस्य कामाः ततः स मारान्तः (मारान्तर्वर्ती) यतः सः मारान्तः ततः सः दूरे ३वासौ अन्तः नैवदूरे। __पदार्थ-आवन्ती-जितने जीव असंयत हैं, उनमें । केयावन्ती-कितने एक। लोयंसि-लोक में। विप्परामुसन्ति-अनेक विषयाभिलाषा से अनेक जीवों की घात करते हैं। अट्ठाए-प्रयोजन से। अणट्ठाए-निष्प्रयोजन से, फिर वे जीव। एएसु-इन्हीं 6 कायों में। च-पुनः। एव-अवधारणार्थ में। विप्परामुसन्ति-उत्पन्न होते हैं तथा अनेक प्रकार के दुःखों का संवेदन करते हैं, फिर। से-उसको। गुरुकामा काम भोगों का परित्याग करना कठिन हो जाता है। तओ-तदनुसार। से-वह। मारन्ते-जन्म-मरण के प्रवाह में प्रवहमान रहता है। जओ-जिससे। से-वह। दूरे-मोक्ष से दूर रहता है। से-वह। नेव-अन्तो विषय सुख के अन्तर्वर्ती भी नहीं है, और। नेव दूरे-न उससे दूर ही है। ___ मूलार्थ-संसार में जितने भी असंयत जीव हैं, उनमें कई जीव अनेक तरह के प्रयोजन से या निष्प्रयोजन ही अनेक जीवों की हिंसा करते हैं। इस कारण वे इन्हीं 6 काय के जीवों में उत्पन्न होते रहते हैं, वे मोक्ष से दूर हैं। विषय-भोगों के इच्छुक होने के कारण संसार से दूर भी नहीं हैं और विषय-सुख का उपभोग भी नहीं कर सकते हैं। हिन्दी-विवेचन
प्रस्तुत सूत्र में हिंसा एवं हिंसाजन्य फल का उल्लेख किया गया है। कुछ असंयत मनुष्य धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के लिए अनेक जीवों की हिंसा करते रहते हैं। अर्थ और काम की प्राप्ति के लिए तो स्पष्ट रूप से हिंसा होती ही है। परन्तु कुछ लोग धर्म एवं मोक्ष के नाम पर किए जाने वाले यज्ञों एवं अन्य क्रियाकाण्डों में-पंचाग्नि, होम, धूपदीप आदि में अनेक जीवों की हिंसा करते हैं। वे प्रयोजन से या निष्प्रयोजन ही केवल मौज-शौक के लिए दूसरे प्राणियों का प्राण ले लेते हैं। जैसे मनोविनोद के लिए शिकार आदि दुष्कर्मों के द्वारा प्राणियों की हिंसा करते हैं और परिणामस्वरूप पाप कर्म का बन्ध करके उन्हीं 6 काय के जीवों में उत्पन्न होते रहते हैं, जन्म-मरण के प्रवाह में प्रवहमान रहते हैं।