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________________ चतुर्थ अध्ययन, उद्देशक 3 557 जाता है, उसी प्रकार तप से जीर्ण-शीर्ण बने कर्म भी जल्दी नष्ट हो जाते हैं। . ___ इस प्रकार आत्मसमाधि प्राप्त करने के लिए साधक को राग-भाव एवं क्रोध आदि, अर्थात् कषायों का परित्याग कर देना चाहिए, क्योंकि क्रोध आदि विकारों से आत्मा में सदा व्याकुलता बनी रहती है। योगों में स्थिरता नहीं आ पाती। मानसिक वैचारिक चंचलता एवं शारीरिक कंपन को दूर करके निष्कर्म बनने के लिए क्रोध आदि विकारों का त्याग करना आवश्यक है। इससे आत्मचिन्तन में स्थिरता आती है। ___ प्रश्न यह है कि वीतराग आज्ञा का परिपालन करने वाले साधक को योगों के स्थिर होने पर किस वस्तु का चिन्तन करना चाहिए? इसका समाधान करते हुए सूत्र कार कहते हैं मूलम्-इमं निरुद्धाउयं संपेहाए, दुक्खं च जाण, अदु आगमेस्सं, पुढो फासाइं च फासे, लोयं च पास विफंदमाणं, जे निव्वुडा पावेहिं कम्मेहिं अणियाणा ते वियाहिया, तम्हा अतिविज्जो नो पडिसंजलिज्जासि, त्तिबेमि॥137॥ ___ छाया-इदं निरुद्धायुष्कं संप्रेक्ष्य दुःखं च जानीहि अथवा आगामि (दुःखम्) पृथक् स्पर्शाञ्च स्पृशेल्लोकं च पश्य विस्यन्दमान ये निवृत्ताः पापेषु कर्मसु अनिदानास्ते व्याख्याताः तस्मादतिविद्वान् न प्रतिसंज्वलेः, इति ब्रवीमि। पदार्थ-इमं यह मनुष्य भव। निरुद्धाउयं-परिमित आयु वाला है, यह। संपेहाए-विचार कर, और। दुक्खं-क्रोधादि से उत्पन्न होने वाले दुःखों को। जाण-जान। अदु-अथवा। आगमेस्सं-भविष्य में उत्पन्न होने वाले दुःखों का, और। पुढो-पृथक् पृथग् नरकों में। फासाइफासे-दुःखों का स्पर्श करता है। च-समुच्चय अर्थ में। च-और। विफंदमाणं-दुःखों को दूर करने के लिए इधर-उधर भागते हुए। लोय-लोक को। पास-देख। जे-जो। निव्वुडा-क्रोध आदि से निवृत्त हैं। पावेहि-पाप-कर्मों से निवृत्त हैं। अणियाणा-निदान कर्म से रहित हैं। ते-वे। वियाहिया-इच्छा; आकांक्षा रहित हैं, ऐसा कहा गया है। तम्हा-इसलिए। अतिविज्जो-प्रबुद्ध पुरुष। नो पडिसंजलिज्जासि-अपने हृदय में क्रोध को प्रज्वलित न करे। त्तिबेमि-इस प्रकार मैं कहता हूँ।
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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