SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 63
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 54 भयंकरता लाई जाती है। अतः विश्व-शान्ति के लिए शस्त्र खतरनाक हैं। इसलिए साधक को चाहिए कि वह द्रव्य एवं भाव शस्त्रों की भयंकरता का परिज्ञान करके उनसे सर्वथा निवृत्त हो जाए। प्रस्तुत अध्ययन के प्रथम उद्देशक में जीव का सामान्य संबोधन करके तथा अवशिष्ट 6 उद्देशों में 6 काय-1. पृथ्वी काय, 2. अप्काय, 3. तेजस् काय, 4. वायु काय, 5. वनस्पति काय और 6. त्रस काय के जीवों का वर्णन किया गया है और साधक को उनकी हिंसा से निवृत्त होने का उपदेश दिया गया है। क्योंकि हिंसा ही मृत्यु है, गांठ है, मोह है, जन्म-मरण के प्रवाह को बढ़ाने का मूल कारण है। हिंसा से पाप-कर्म का बन्ध होता है और हिंसा द्रव्य एवं भाव शस्त्रों से होती है। अतः हिंसा का परित्याग करने वाले साधक को शस्त्रों से सदा दूर रहना चाहिए। प्रस्तुत अध्ययन का प्रारम्भ 'सुयं में आउसं तेणं'... ...पद से होता है। इससे यह सिद्ध किया गया है कि प्रस्तुत आगम के अर्थरूप से उपदेष्टा तीर्थंकर भगवान महावीर हैं और सूत्रकार गणधर सुधर्मा स्वामी हैं। वे अपने शिष्य जम्बू से कहते हैं कि हे आयुष्मन्! मैंने भगवान महावीर के मुख से ऐसा सुना है। . आचारांग सूत्र भगवान महावीर का सर्व प्रथम प्रवचन है, ऐसी मान्यता है और इसकी भाषा, विषय एवं शैली से भी यह सबसे प्राचीन प्रतीत होता है। अतः इस दृष्टि से इसका प्रथम वाक्य अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। इसमें बताया है-"इहमेगेसिं नो सन्ना भवइ, तंजहा......" अर्थात् इस संसार में कुछ जीवों को यह भी ज्ञात नहीं होता है कि वे कहां से आए हैं और यह जन्म-ग्रहण करने वाला आत्मा है या नहीं। वे यह भी नहीं जानते कि मैं कौन हूं और मुझे मर कर कहां जाना है। इसके आगे कहा गया है कि जिस व्यक्ति को स्वयं के चिन्तन, मनन या विशिष्ट ज्ञानी जनों के संसर्ग से जब उक्त बातों का परिज्ञान हो जाता है, तब से वह आत्मवादी, लोकवादी, कर्मवादी और क्रियावादी कहा जाता है। इससे स्पष्ट होता है कि पहले व्यक्ति के मन में अपने एवं लोक के स्वरूप को जानने की जिज्ञासा उत्पन्न होती है और वह उसे समझने का प्रयत्न करता है। जब वह अपने क्षयोपशम से या ज्ञान-संपन्न साधकों के सम्पर्क में आकर उसे यथार्थतः जान लेता है, तभी वह आत्मवादी और लोकवादी अर्थात् आत्मा एवं लोक के स्वरूप का ज्ञाता कहलाता है। और स्वरूप का परिज्ञान करने के बाद ही वह कर्म एवं क्रियावादी हो सकता है।
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy