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तृतीय अध्ययन, उद्देशक 3
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जानता है, वह मुक्ति को जानता है और जो मोक्ष को जानता है वह कम क्षय करने की प्रक्रिया को जानता है। ___साधक अन्तर्मुखी साधना से ही कर्म क्षय करता है। इसलिए उसे आदेश देते हुए कहा गया है-तू अपनी आत्मा को बहिर्वृत्तियों से हटाकर धर्मध्यान या आत्म-चिन्तन की ओर मोड़। दूसरे शब्दों में यों कहते हैं कि तू बाहर से सिमट कर अपने अन्दर स्थित हो जा। इससे विषय-वासना की आसक्ति से आने वाले कर्म रुक जाएंगे और परिणामस्वरूप तू दुःखों से मुक्त हो जाएगा। . इसके लिए सत्य-संयम का आचरण आवश्यक है। सत्य पथ पर गतिशील एवं सत्य-आगम की आज्ञा के अनुसार प्रवृत्ति करने वाला व्यक्ति संसार-सागर से पार . हो जाता है; क्योंकि विषयों में आसक्त रहने का नाम संसार है और जब वह विषयों से अपने को सर्वथा हटा लेता है, तो उसके लिए संसार दूर होता जाता है और मोक्ष निकट होता जाता है। इसलिए साधक को सत्य-संयम के परिपालन करने एवं आगम के अनुसार प्रवृत्ति करने का आदेश दिया गया है। प्रस्तुत प्रकरण में सत्य शब्द सत्य, संयम एवं आगम.तीनों अर्थ में प्रयुक्त हुआ है।
_ 'मार' शब्द का अर्थ संसार किया है, यह भी उपयुक्त है। इसके अतिरिक्त 'मार' शब्द कामदेव के अर्थ में भी प्रयुक्त होता है और वह अर्थ भी यहां अनुपयुक्त नहीं है, क्योंकि श्रुत और चारित्र धर्म का आराधक काम-वासना पर विजय पा लेता
1. 'उच्चालइयं' शब्द कर्मों को दूर करने का तथा 'दूरालइयं' शब्द मोक्ष-मार्ग का संसूचक .. . . है। संस्कृत में इसका 'दूरालयं' रूप बनता है और इससे मत्वर्थीय प्रत्यय का संबंध कर
देने से ‘दूरालयिक' रूप बन जाता है, जो मोक्षमार्गानुगामी आत्मा का परिबोधक है; 'दूरे सर्वहेयधर्मेभ्य इत्यालयो दूरालय-मोक्षस्तन्मार्गो वा स विद्यते यस्येति मत्वर्थीयष्ठन् दूरालयिकस्तमिति।'
-आचारांग वृति 2. सद्भ्यो हितः सत्यः-संयमस्तमेवापर व्यापारनिरपेक्षः समभिजांनीहिआसेवनापरिज्ञया
समनुतिष्ठ, यदिवा सत्यमेव समभिजानीहि-गुरु साक्षिगृहीत प्रतिज्ञानिर्वाहको भव, यदिवा सत्यः-आगमस्तत्परिज्ञानं च मुमुक्षोस्तदुक्तप्रतिपालनं। 'सच्चमेव समणुजाणाहि। इस वाक्य में प्रयुक्त सत्य शब्द के तीन अर्थ किए गए हैं और 'सच्चस्स' का अर्थ तो एक आगम ही किया है-“सत्यस्य-आगमस्याज्ञयोपस्थितः सन्।
-आचारांग वृत्ति