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________________ 489 तृतीय अध्ययन, उद्देशक 2 कुछ लोग केवल विनोद एवं शौर्य प्रदर्शन के लिए शिकार करके प्रसन्न होते हैं । कुछ लोग वेद विहित यज्ञों में एवं देवी-देवताओं को तुष्ट करने के लिए पशुओं का बलिदान करके आनन्द मनाते हैं। इस प्रकार स्वर्ग एवं पुत्र -धन आदि की प्राप्ति तथा शत्रुओं के नाश के लिए या धर्म के नाम पर मूक एवं असहाय प्राणी की हिंसा करना, धर्म की पवित्र मानी जाने वाली वेदी को निरपराध प्राणियों के खून से रंग कर आनन्द मनाना भी पतन की पराकाष्ठा है और आध्यात्मिक दृष्टि से सर्वोत्कृष्ट बाल-भाव - अज्ञान है। इससे आत्मा पतन के महागर्त में गिरता है । इन सब पाप-कार्यों का मूल कारण विषय- कषाय है। अतः मुमुक्षु पुरुष को विषय-कषाय का परित्याग करके पाप कर्म से सर्वथा निवृत्त हो जाना चाहिए । इसी बात को स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैं मूलम् - तम्हा तिविज्जो परमंति णच्चा आयंकदंसी न करेइ पावं । अग्गं च मूलं च विगिंच धीरे पलिच्छिंदिया णं निक्कम्मदंसी ॥4॥ छाया - तस्मद्गतिंविद्वान् परममिति ज्ञात्वा, आतंकदर्शी न करोति पापम् । अग्रञ्च मूलं च त्यज धीर! परिच्छिद्य निष्कर्मदर्शी ॥ पदार्थ - तम्हा तिविज्जो - इसलिए प्रबुद्ध - विशिष्ट ज्ञानी पुरुष । | परमंति-मोक्ष के सर्वश्रेष्ठ । णच्चा - जानकर वह । आयंकदंसी - आतंकदर्शी-नरकादि दुःखों के कारण एवं परिणाम का द्रष्टा । पावं न करेइ - पाप कर्म को नहीं करता । धीरे - हे धैर्यवान ! तू । अग्गं - भवोपग्राही वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र इन कर्म चतुष्टय और । मूलं - आत्मा के मूल गुण के घातक – ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय कर्म चतुष्टय को । च- समुच्चयार्थक । विगिं च - दूर कर | णं - वाक्यालंकार में । पलिच्छिंदिया- - तप संयम के द्वारा कर्म वृक्ष के मूल एवं शाखा प्रशाखा का छेदन करके । निक्कम्मदंसी - निष्कर्मदर्शी - कर्म रहित होकर जगत का द्रष्टा बन जाता है, अर्थात् सर्वज्ञ-सर्वदर्शी हो जाता है । 1 मूलार्थ - इसलिए आतंकदर्शी नरकादि दुःखों के कारण एवं उसके परिणाम का यथार्थ द्रष्टा प्रबुद्ध पुरुष पाप कर्म में प्रवृत्त नहीं होता । आर्य! तू आत्मा के मूल को प्रच्छन्न करने वाले घातिकर्म चतुष्टय और
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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