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________________ 434 श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध कि उसके साथ राग-द्वेष की प्रवृत्ति नहीं होती है। इसलिए साधक को राग-द्वेष से निवृत्त होने का प्रयत्न करना चाहिए। इससे यह होगा कि राग-द्वेष से निवृत्त हो जाने पर नए कर्मों का बन्ध नहीं होगा और पुराने कर्म की निर्जरा करके वह कार्मण शरीर को ही नष्ट कर देगा, जिसके आधार पर जीव औदारिक आदि शरीर धारण करता है और विभिन्न योनियों में भटकता फिरता है। संसार का सारा खेल कर्म पर ही आधारित है, उसका नाश होने पर खेल की समाप्ति स्वतः ही हो जाएगी। नींव उखाड़ फेंकने पर गगनचुम्बी भवनों का स्थित रहना भी नितांत असंभव है। इसी प्रकार कर्म का उन्मूलन ही संसार का उन्मूलन है और उसके लिए कर्म के मूल कारण राग-द्वेष को समाप्त करने की आवश्यकता है। अतः मुनि को चाहिए कि वह विषयों से सदा मौन रहे, अर्थात् राग-द्वेष से निवृत्त होने का प्रयत्न करे। यही कर्मों को नष्ट-विनष्ट करने का प्रशस्त मार्ग है। ‘संमत्तदंसिणो-पाठ भी इसी बात को पुष्ट करने के लिए दिया है। जो समदर्शी है-अनुकूल एवं प्रतिकूल विषयों के उपस्थित होने पर भी जिसकी दृष्टि में विषमता नहीं आती, वही वीर पुरुष कर्म की विषाक्त लता को निर्मूल कर सकता है। अतः हम कह सकते हैं कि संसार-सागर को पार करने के लिए समता की नौका को स्वीकार करना अनिवार्य है। समभाव की साधना जितनी विकसित होती जाएगी, उतना ही राग-द्वेष कम होता जाएगा और राग-द्वेष के घटने का अर्थ है-संसार का घटना। जब हमारी आत्मा में समभाव की पूर्ण ज्योति प्रज्वलित हो उठेगी, तो राग-द्वेष का अस्तित्व भी समाप्त हो जाएगा और उसके साथ संसार का भी अन्त ही समझिए। अतः मुनि को चाहिए कि वह परिग्रह एवं विषयों की आसक्ति का परित्याग करे। क्योंकि आसक्ति से परिणामों एवं विचारों में विषमता आती है, राग-द्वेष के भाव उबुद्ध होते हैं। इसलिए उसके मूल कारण असक्ति का त्याग करने वाला साधक ही बाह्य परिग्रह से भी निवृत्त होता है और एक दिन समस्त कर्मों एवं कर्म जन्य साधनों से मुक्त होकर निर्वाण पद को प्राप्त करता है। 'ब्रवीमि' का अर्थ पूर्ववत् समझना चाहिए। जो व्यक्ति परिग्रह एवं विषयों की आसक्ति से मुक्त एवं विरत नहीं हुआ है, उसकी क्या स्थिति होती है, इसका विवेचन करते हुए सूत्रकार कहते हैं
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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