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________________ 424 श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध या व्याधि-चिकित्सा करने वाले बाल-अज्ञानी जीवों का संग नहीं करना चाहिए। अतः इन क्रियाओं के अनुष्ठान में अणगार को कभी प्रवृत्त नहीं होना चाहिए। इसका तात्पर्य यह है कि अणगार-मुनि को उक्त सदोष क्रियाएं करनी नहीं कल्पती हैं। जैनाचार्यों के पास अनेक विधि विधान थे और अनेक प्रकार की विधाओं का ज्ञान था। लेकिन वह आगे नहीं आया। उसके दो कारण हैं। एक तो यह कि उसको सँभालने की शक्ति किसी के पास नहीं थी। जितनी महान विद्या होगी, उतनी ही अधिक शक्ति चाहिए। दूसरा कारण उतनी शुद्धता नहीं थी। मोह कर्म का प्राबल्य था। जैसे कि आज वर्तमानकाल में है, क्योंकि शक्ति होने पर साधना तो कर लेंगे, लेकिन शुद्धता नहीं हुई तो साधना को कैसे संभालेंगे? इस प्रकार शक्ति और शुद्धता की न्यूनता के कारण साधना, अनेक विद्याएं, आगे नहीं बढ़ सकीं। फिर भी कुछ ऐसे लोग होते हैं जो इन्हें साधते भी हैं और सँभालते भी हैं। लेकिन प्रकट नहीं करते, क्योंकि इससे धर्म प्रभावना होने के बदले अनेक बार कई स्वार्थी और लोभी लोग आसपास इकट्ठे हो जाते हैं, इसलिए महापुरुष इन्हें विशेष रूप से प्रकट नहीं करते। ___ यहाँ पर आपने पिछले दो सूत्रों में देखा कि एक महत्त्वपूर्ण भाव की बात की गयी। वह है, कर्ता। मैंने किया था, मैं कर रहा हूँ अथवा मैं करूंगा; आज तक किसी ने नहीं किया ऐसा मैं करूँगा। इस कर्ताभाव की चिकित्सा क्या है? इसकी चिकित्सा है-शरणभावना, समर्पणभावना। तब फिर कर्ताभाव नहीं रहेगा। यह कर्ता-भाव बहुत ही सूक्ष्म परन्तु बहुत ही प्रभावशाली बन्धन है। कर्ता-भाव तीनों काल सम्बन्धी हो सकता है। अतः शरण-भाव आवश्यक है। इसके पूर्व शरण-भाव के सम्बन्ध में बताया था। उस प्रकार शरणभाव के आने पर कर्ता-भाव स्वयमेव तिरोहित हो जाता है और शरण में जाने के लिए क्या करना है? कुछ भी नहीं करना है, बस केवल शरण में रहना है।
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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