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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
साथ नीर-क्षीरवत् जुड़े हैं जिस दिन हम देहबुद्धि से मुक्त हुए, फिर आसपास का वातावरण, आहार इत्यादि असर नहीं करते।
यह प्रत्यक्ष है कि अशुद्ध भोजन करने पर उसका असर देह पर होता है और इन्द्रियां एवं मन के माध्यम से आत्मपरिणाम भी विचलित होते हैं। इस प्रकार देह-बुद्धि रहते हुए, यह सब आवश्यक है। इसी कारण साधु भी दो प्रकार के होते हैं।
__1. कल्प में रहने वाले, 2. कल्पातीत। जिसकी देहबुद्धि अभी शेष है उसे कल्प में रहना आवश्यक है। दूसरी प्रकार के कल्पातीत साधु के लिए कल्प में रहना यद्यपि आवश्यक नहीं है। फिर भी अधिकांशतः वह उसका पालन करेगा, क्योंकि एक तो उसके लिए वे सारे नियम-उपनियम स्वाभाविक हो जाएंगे। और दूसरे लोग सदा ही बड़ों का अनुकरण करते हैं। इस कारण छोटों को अनुकरण/मार्गदर्शन देने के लिए कल्पातीत साधु नियमों का पालन करते हैं। यदि वे नियमों का पालन न भी करें, तब भी उनका चारित्र सम्यक् चारित्र ही है।
हम कभी इस देहबुद्धि में डूब न जाएं, इसलिए सारे कल्प की व्यवस्था है। अधिकतर हम देखते हैं कि बिना नियमों के देहबुद्धि रहते हुए, जागरूकता नहीं रह पाती। भीतर से जितनी शुद्धि कम होगी, उतनी ही साधक को नियमों की आवश्यकता है। इस कारण पंचमकाल में समस्त संघ के लिए इतने नियम-उपनियमों को बनाया गयां चूंकि इस काल में मोहनीय कर्म की प्रबलता है, इसलिए निमित्तों से बचना आवश्यक है। ___नियमों के बिना साधना का मार्ग जोखिम का मार्ग है। हम तो देखते हैं कि यह बाह्य साधना, नियम-उपनियम और आन्तरिक साधना रूप समन्वित मार्ग बहुत आसान है। यही जिन-शासन की महिमा है। ऐसे तो सभी मार्ग अपने-अपने दृष्टिकोण से ठीक हैं। अनेकान्तवाद के आधार पर देखें, तब सभी में कहीं-न-कहीं कोई सत्य समाया हुआ है। परन्तु उन सब में जिन-शासन का मार्ग राजमार्ग है। कोई स्वीकार करे या न करे, चलकर देखने पर स्वयं पता चल जाएगा।
आचार्य, उपाध्याय पद की योग्यता
जैसा कि कहा जाता है, आचार्य, उपाध्याय और स्थविर कल्पातीत होते हैं।