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________________ प्रस्तुत आगम.को भगवान और वेद कहा है। क्योंकि तीर्थ प्रवर्तन में आचार का सर्व प्रमुख स्थान है। शेष ग्यारह अंग उसके बाद हैं। इसका कारण यह है कि इसमें मुक्ति प्राप्त करने के साधन की चर्चा है और वस्तुतः देखा जाए तो समग्र प्रवचन एवं द्वादशांगी का सार भी मोक्ष है और आचारांग में मोक्ष-साधना का ही उपदेश है। इसलिए आचारांग को द्वादशांगी का सार कहा है और इसी कारण इसे इतना महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है। आचाराग का उपदेश आचार्य भद्रबाह, चूर्णिकार और आचार्य शीलांक इस विषय में एकमत हैं कि द्वादशांगी का उपदेश और इसकी रचना सर्व प्रथम हुई है। परन्तु आवश्यक चूर्णि में इसके विपरीत मतों का उल्लेख भी मिलता है। कुछ विचारकों का अभिमत है कि तीर्थंकरों ने सर्वप्रथम अर्थ रूप से पूर्वो का उपदेश दिया, परन्तु गणधरों ने सूत्र रूप से सर्वप्रथम आचारांग की रचना की। किन्तु कुछ आचार्यों का यह अभिमत है कि सर्वप्रथम उपदेश भी पूर्वो का दिया गया और ग्रन्थ रचना भी पूर्वो की ही की गई। उपदेश एवं रचना की दृष्टि से पहले 'पूर्व' हैं, उसके बाद आचारांगादि अंग शास्त्र हैं, किन्तु स्थापन की दृष्टि से आचारांग को सर्वप्रथम स्थान दिया गया है । इन विचार-भेदों के आधार पर हम इतना तो निस्संदेह कह सकते हैं कि समग्र श्रुत-साहित्य में आचारांग का अपना विशिष्ट स्थान है। भले ही वह उपदेश की दृष्टि से प्रथम न रहा हो, रचना की दृष्टि से रहा हो या स्थापन की दृष्टि से प्रथम रहा हो, परन्तु इसमें किसी के दो मत नहीं हैं कि आचारांग का आगम-साहित्य में मूर्धन्य स्थान है। वह जैन-साहित्य-गगन का चमकता हुआ सूर्य है। 1. आयारस्स ‘भगवओ' निज्जुत्तिं कित्तइस्सामि। -आचारांग नि. 1 2. आचारांग, नि. 11 3. आचा. नि. 8,9 4. अंगाणां किं सारो? आयारो। -आचा., नि.। 5. सव्वतित्थगरा वि आयारस्स अत्थं पढम आइक्खंति ततो सेसगाणं एक्कारसण्हं अंगाणं ताए चेव परिवाडिए गणहरा वि सुत्तं गुंथति। -आचारांग चूर्णि, पृ. 3 . 6. आवश्यक चूर्णि, पृ. 56-57
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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