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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
मूलार्थ-जो मैं कहता हूं उसको जानो तथा धारण करो, कामचिकित्सा का उपदेशक पांडित्याभिमानी व्यक्ति, जीवों का हनन करता है, छेदन करता है, भेदन करता है, लूटता है, गला काटता है और प्राणों का विनाश करता है, और मैं अकृत जिसे अभी तक किसी ने नहीं किया है, ऐसा काम करूंगा, इस प्रकार मानता हुआ अपनी व पर की अथवा दोनों की चिकित्सा करता है। इस प्रकार कामचिकित्सा वा व्याधिचिकित्सा करने वाले बाल-अज्ञानी जीवों का संग नहीं करना चाहिए। अतः इन क्रियाओं के अनुष्ठान में अनगार को कभी प्रवृत्त नहीं होना चाहिए। इसका तात्पर्य यह है कि अनगार-मुनि को उक्त सदोष क्रियाएं करनी नहीं कल्पती हैं। हिन्दी-विवेचन
प्रस्तुत सूत्र में साधु को काम एवं रोग चिकित्सा करने का निषेध किया गया है। क्योंकि उक्त चिकित्साओं में अनेक जीवों की हिंसा होती है, अतः साधक को किसी की चिकित्सा नहीं करनी चाहिए। काम चिकित्सा का वात्स्यायन सूत्र में विस्तृत विवेचन किया गया है। उसमें कामसेवन के विविध आसनों, प्रकाम भोजन एवं पौष्टिक औषधियों का उल्लेख किया गया है। इससे काम-वासना उद्दीप्त होती है
और मनुष्य भोग की ओर प्रवृत्त होता है। वस्तुतः यह काम की चिकित्सा नहीं, अपितु उसको बढ़ाने वाली है। चिकित्सा का अर्थ है-औषध आदि प्रयोगों से रोग का उपशमन या नाश करना। काम भी एक रोग है और इसका मूल है मोह कर्म। अतः मोह कर्म का उपशमन करना या क्षय करना वास्तव में काम चिकित्सा है। परन्तु अक्षरी पांडित्य के अभिमानी भोग प्राप्ति की योग्यता को चिकित्सा का रूप देते हैं। जो वस्तुतः काम के रोग को बढ़ाने वाली है। उससे मोहकर्म की उदीरणा होती है और मनुष्य की भोगेच्छा में अभिवृद्धि होती है। मोहकर्म संसार में परिभ्रमण कराने वाला है। अतः साधु को ऐसी चिकित्सा करना नहीं कल्पता।
इस प्रकार रोग चिकित्सा में जड़ी-बूटी आदि से तथा स्वर्ण भस्म आदि रासायिनिक औषधों को बनाने या बनाने की विधि बताने में पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, वनस्पति एवं त्रस प्राणियों की हिंसा होती है और ऐसी प्रवृत्ति में लगे रहने से आध्यात्मिक चिन्तन में भी विघ्न उपस्थित होता है। क्योंकि रोगी रात-दिन उसे घेरे रहेंगे, अतः