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द्वितीय अध्ययन, उद्देशक 5
अर्थ-आधाकर्म आदि दोषों से दूषित अशुद्ध आहार किया है। अतः समस्त दोषों से रहित शुद्ध आहार को ग्रहण करके संयम साधना में संलग्न रहना ही साधु का प्रमुख उद्देश्य है।
इसी बात को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैं
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मूलम् - अदिस्समाणे कयविक्कयेसु, से ण किणे न किण्णाव - किणतं न समणुजाणइ, से भिक्खू कालन्ने बालन्ने मायने खेयन्ने खणयन्ने विणयन्ने ससमयपरसमयन्ने भावन्ने परिग्गहं अममायमाणे कालाणुट्ठाई अपडिण्णे॥89॥
छाया-अदृश्यमानः क्रयविक्रयौ स न क्रीणीयात् न क्रापयेत् क्रीणन्तमपि न समुनजानीयात् स भिक्षुः कालज्ञः बलज्ञः मात्रज्ञः क्षेत्रज्ञः खेदज्ञः क्षणज्ञः विनयज्ञः स्वसमयपरसमयज्ञः भावज्ञः परिग्रहमममीकुर्बन् (अस्वीकुर्वन् ) कालानुष्ठायी अप्रतिज्ञः ।
पदार्थ–कय॰विक्कयेसु-खरीदने और बेचने में । अदिस्समाणे- अदृश्यमान् अर्थात् न क्रय-विक्रय करता हुआ और न उसका उपदेश देता हुआ । से - वह भिक्षु । णकिणे - धर्मोपकरणादि न खरीदे । ण किणावए-न अन्य से मोल मंगवाये । किणतं-खरीद रहे व्यक्ति का । न समणुजाणइ - अनुमोदन भी न करे । से भिक्खू - वह भिक्षु | कालन्ने - समय का ज्ञाता । बालन्ने - आत्मबल का ज्ञाता । मायने - अहारादि के प्रमाण का जानकार । खेयन्ने - अभ्यास को जानने वाला या संसार के पर्यटन के श्रम को जानने वाला । खणयन्ने अवसर का जानकार । विणयन्ने - विनय के स्वरूप को जानने वाला । ससमय परसमयन्ने - स्वमत और परमत के स्वरूप का परिज्ञाता । भावन्ने - दाता और श्रोताओं के भाव को जानने वाला । परिग्गहं- परिग्रह को । अममायमाणे1 -न स्वीकार करता हुआ । कालाणुट्ठाईयथासमय क्रियानुष्ठान करनेवाला । अपडिन्ने - दुष्ट प्रतिज्ञा से रहित, तथा निदानादि कर्म न करने वाला ।
मूलार्थ - स्वयं क्रय-विक्रय कार्य को नहीं करता हुआ और न उसका उपदेश देता हुआ वह भिक्षु, न तो स्वयं वस्तु खरीदे और न दूसरों से मोल मंगाये तथा मूल्य