________________
द्वितीय अध्ययन : लोकविजय
पंचम उद्देशक
चतुर्थ उद्देशक में भोगेच्छा के परित्याग एवं किसी भी प्राणी को कष्ट नहीं देने का उपदेश दिया गया है। इससे यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि फिर साधक अपने जीवन का निर्वाह कैसे करे ? इसी प्रश्न का समाधान प्रस्तुत उद्देशक में किया गया है।
संयम-साधना के लिए शरीर महत्त्वपूर्ण साधन है । आध्यात्मिक साधना की चरम सीमा तक पहुंचने के लिए उसके माध्यम की आवश्यकता है और उसको स्वस्थ एवं समाधियुक्त बनाए रखने के लिए आहार, वस्त्र, पात्र, मकान, शय्या - संथारा आदि साधन भी आवश्यक हैं। इनमें आहार सबसे पहली आवश्यकता है। कभी मकान न मिले तो साधक जंगल में वृक्ष के नीचे भी अपनी साधना में संलग्न रह सकता है। अन्य आवश्यकता का भी कभी संयोग न मिलने पर भी वह अपनी साधना को गतिमान रख सकता है, परन्तु आहार की आवश्यकता तो जिनकल्पी या स्थिवर कल्पी विशेष अभिग्रहधारी या अनभिग्रहधारी सभी को रहती है और इन सब साधनों की पूर्ति गृहस्थ लोगों से होती है, अतः उसे लोक का आश्रय भी लेना पड़ता है, परन्तु आश्रय लेने का यह अर्थ नहीं है कि वह आहार, वस्त्र - पात्र आदि के लिए अपनी संयम वृत्ति का त्याग करके गृहस्थ की पराधीनता स्वीकार कर ले। आश्रय लेने का यहां यह अभिप्राय है कि साधक बिना स्वार्थ एवं आकांक्षा के केवल संयम-साधना को गति देने के लिए गृहस्थों के यहां से निर्दोष आहार आदि की गवेषणा करे। इन साधनों को प्राप्त करते समय संयम को सदा सामने रखे ।
प्रस्तुत उद्देशक में यही बताया गया है कि साधक को किस विधि से आहार ग्रहण करना चाहिए। इसका प्रथम सूत्र निम्नोक्त है
मूलम् - जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं लोगस्स कम्मसमारंभा कज्जंति, तंजहा- अप्पणो से पुत्ताणं धूयाणं सुण्हाणं नाईणं धाईणं राईणं दासाणं दासीणं कम्मकराणं कम्मकरीणं आएसा पुढो पणाए