SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 461
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध स्वीकार करने वाले आहार, वस्त्र - पात्र आदि साधनों में भी आसक्त नहीं रहना चाहिए और न इनके लिए किसी भी प्राणी को मानसिक, शाब्दिक और शारीरिक कष्ट ही पहुंचाना चाहिए । 372 यदि मुनि किसी गृहस्थ के घर में भिक्षा के लिए गया, वहां उसे अपनी विधि के अनुसार आहार आदि उपलब्ध नहीं हुआ या गृहस्थ ने उसे आहार आदि दिया नहीं या किसी गृहस्थ ने उसे थोड़ा सा आहार दिया या किसी ने अपने घर से खाली हाथ ही लौट जाने के लिए कह दिया । इस प्रकार के अनेक विकल्पों के उपस्थित होने पर भी साधु अपने धैर्य एवं उपशान्त भावना का परित्याग करके उनके संकल्प-विकल्प के जाल में उलझ न जाए । चाहे जैसी स्थिति - परिस्थिति क्यों न उत्पन्न हो, पर साधक को प्रत्येक परिस्थिति में सदा-सर्वदा समभाव रखना चाहिए। गृहस्थ के न देने पर उस पर क्रोध नहीं करना चाहिए और थोड़ा देने पर उसकी निन्दा भी नहीं करनी चाहिए और उसके इनकार कर देने पर उसके घर में नहीं ठहरना चाहिए और न दीनता के भाव प्रकट करने चाहिए। क्योंकि साधु आहार आदि पदार्थों का उपभोग केवल संयम-साधना के लिए करता है, न कि पदार्थों का स्वाद चखने के लिए । अतः उसे समय पर जैसा भी पदार्थ मिल जाए उसमें सन्तोष करना चाहिए और यदि कभी परिस्थिति वश पदार्थों का संयोग न मिले, तो उसे सहज ही तप का सुअवसर समझकर सन्तोष करना चाहिए। परन्तु उन पदार्थों में आसक्त होकर साधना के विपरीत आचरण नहीं करना चाहिए । इस प्रकार भोगों की आसक्ति से दूर रहने वाला मुनि इन्द्रादि के द्वारा प्रशंसा को प्राप्त होता है । प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त ' महब्भयं ' शब्द आत्मविकास की साधना में प्रवर्त्तमान व्यक्ति के लिए बड़ा महत्त्वपूर्ण है । इस शब्द से यह अभिव्यक्त किया गया है कि विषय-भोग में आसक्त व्यक्ति सदा-सर्वदा भयभीत रहते हैं । भौतिक शक्ति एवं धन-वैभव से संपन्न होने पर भी वे निर्भयता के साथ नहीं घूम-फिर सकते । जितने भौतिक साधन अधिक होंगे उन्हें उतना ही अधिक भय होगा। रूस और अमेरिका का उदाहरण हमारे सामने है, दोनों आज के युग की महान् भौतिक शक्ति अणु आयुधों से संपन्न होने पर एक-दूसरे से अत्यधिक भयभीत हैं । इससे स्पष्ट होता है कि विषय-भोग भय में अभिवृद्धि करने वाले हैं । अतः उनका परित्याग करने-वाला
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy