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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध . पदार्थ-जे-जो। जण-जन। धुवचारिणो-ध्रुवचारी मोक्ष साधक ज्ञान दर्शनादि सम्यग् आचरण करने वाले हैं वे। इणमेव-पूर्वोक्त असंयत जीवन को। नावकंखंतिनहीं चाहते। हे शिष्य! तू। जाइमरणं-जन्म-मरण के स्वरूप को। परिन्नायं-जानकर। संकमणे-चारित्र मे। दढे-दृढ़ होकर। चरे-चल-विचर, कारण कि । कालस्स-काल का। णागमो-अनागमन। नत्थि-नहीं है, अर्थात् मृत्यु का समय अनिश्चित है, और । सव्वे-सब। पाणा-प्राणियों को। पियाउआ-अपनी आयु प्रिय है तथा सब जीव। सुह साया-सुख चाहने वाले हैं और। दुक्ख पडिकूला-दुःख सब को प्रतिकूल है। अप्पियवहा-वध सबको अप्रिय है। पियजीविणो-जीवन सब को प्रिय है और वे जीव। जीविउकामा-जीवन की इच्छा करने वाले हैं और। सव्वेसिं-सर्व जीवों को। जीवियं-असंयममय जीवन। पियं-प्रिय है। तं-उस असंयममय जीवन को। परिगिज्झ-ग्रहण करके। दुप्पयं-द्विपाद-मनुष्यादि नौकर-चाकर। चउप्पयं-चतुष्पाद-गो महिषी और अश्व आदि पशुओं को। अभिजुजिया-कार्य में नियुक्त करके तथा। संसिचया-धन का संचय करके। तिविहेण-तीन करण व तीन योग से। जावि-जो कुछ भी। से-उसे। तत्थ-उंसमें। मत्ता-माया (धन) आदि पदार्थों की इयता। भवई-प्राप्त होती है। अप्पा वा-अल्प अथवा। बहुया वा-बहुत धन मात्रा के। से-वह व्यक्ति। तत्थ-धन मात्रा के। भोयणाए-उपभोग के लिए। गड्ढिए चिट्ठइ-आसक्त बना रहता है। तओ-तत्पश्चात् । से-उसके पास। एगया-किसी समय। विविहं-नाना प्रकार का। परिसिट्ठ-भोगने से बचा हुआ। संभूयं-संभूत पर्याप्त। महोवगरणं-महा उपकरण-द्रव्य समूह एकत्रित। भवइ-हो जाता है। से-उसकी। तंपि-उस एकत्रित धन राशि का भी। एगया-एक समय-भाग्य के क्षय होने पर। दायाया-सम्बन्धी जन। विभयंति-बांट लेते हैं। वा-अथवा। अदत्तहारो-दस्यु-चोर। से-उसके धन को। अवहरत्ति-चुरा ले जाते हैं। वा-अथवा। रायाणो-राजा लोग। से-उसके धन को। विलुम्पति-लूट लेते हैं। वा-अथवा। से-उनका वह धन। नस्सइ-व्यापारादि में नष्ट हो जाता है। वा-अथवा। से-उसका वह धन। विणस्सइ-अन्य प्रकार से नष्ट हो जाता है। वा-अथवा। से-वह उसका धन। अगारदाहेण-घर के दग्ध होने से। डज्झई-जल जाता है। इय-इस प्रकार। से-वह धन के सम्पादन करने वाला।