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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध इसी से संयम में स्थिरता है और यही संयम की उत्कृष्टता है कि जब लोभ पूर्णतः छूट जाता है।
प्रत्येक साधक को यह देखना जरूरी है कि कहीं कोई आकांक्षा तो नहीं जग गई, सुख को पाने की या दुःख को दूर करने की।
तब यह प्रश्न हो सकता है कि फिर हम साधना क्यों करें? साधारणतः व्यक्ति सुख को पाने के लिए साधना करता है। यदि व्यक्ति केवल इसीलिए साधना करता है कि सुख मिले अथवा दुःख दूर हो जाए, रोग ठीक हो जाए या धन मिले, तब वह जब तक आकांक्षा पूरी नहीं होगी, तब तक वह साधना करेगा। आकांक्षा पूरी होने पर उसका साधना के प्रति उत्साह क्षीण भी हो सकता है।
दीक्षा लेने का कारण-न सुख को पाने के लिए, न दुःख को छोड़ने के लिए। जब किसी भी आत्मा में ज्ञान जागृत होता है, तब वह उस जागृत ज्ञान के आधार पर त्याग करता है। जैसे शूकर का दृष्टान्त। या तो जैसे कहते हैं इन्द्रियों का सुख, संसार का सुख कैसा है। जैसे कुत्ता सूखी हड्डी चबाता है और उसके दांतों का खून निकलकर उसे स्वाद देता है, लेकिन जब उसे लगता है कि यह स्वाद हड्डी चबाने से, हड्डी से आ रहा है, यही उसका अज्ञान है और इसी अज्ञान का नाम संसार है। लेकिन उसे जब यह ज्ञान हो जाता है कि खून हड्डी चबाने से हड्डी से नहीं, अपितु अपने ही दांतों से आ रहा है, तब वह हड्डी को निस्सार जानकर छोड़ देता है। __इसी प्रकार इन्द्रियों के भोग-उपभोग में सुख दिखायी देता है परन्तु जब व्यक्ति आत्म-जागरण के द्वार देख लेता है कि सुख भोगोपभोग में नहीं, अपितु स्वयं से स्वयं में है, तब व्यक्ति की भोगोपभोग का सुख त्यागकर स्वयं में ही रुचि लेता है। उसे ज्ञान युक्त वैराग्य कहते हैं। इस प्रकार दीक्षा का अर्थ हुआ संसार की असारता का भान होना। जैसे कुत्ते ने निस्सार सूखी हड्डी को छोड़ दिया, वैसे ही संसार असार लगा
और छोड़ दिया। सबकी दृष्टि में यह त्याग है, लेकिन ज्ञानी की दृष्टि में यह सार का ग्रहण है, निस्सार को छोड़ दिया। यह है ज्ञानयुक्त वैराग्य।
हमें प्रतिदिन अपनी साधना में देखना है कि कहीं वह लोभयुक्त तो नहीं है, क्योंकि आकांक्षा अस्थिरता को लाती है। अस्थिरता एवं कषाय के मिलन से खेद, दुःख का जन्म होता है। जैसे स्थिरता एवं उपशांति के मिलन से आनंद मिलता है।