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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
फिर भी उन्हें संसार में परिभ्रमण करने का साधन समझकर त्याग कर देता है, वही सच्चा त्यागी कहलाता है।
ऐसा त्यागी व्यक्ति लुभावने प्रसंग उपस्थित होने पर भी नहीं फिसलता, वह अलोभ के द्वारा तृष्णा के जाल को छिन्न-भिन्न कर देता है, क्योंकि वह समझता है कि सुहावने से प्रतीत होने वाले सुख-साधनों के पीछे दुःख का अनंत सागर लहरा रहा है। इस आटे की उज्ज्वल गोली के साथ ही प्राणों को हरण करने वाले तीक्ष्ण कांटे की वेदना भी रही हुई है। इसलिए वह प्रबुद्ध साधक उसके क्षणिक लोभ में प्रवहमान होकर अपने आपको अथाह सागर में डूबने नहीं देता, अपितु उस तृष्णा पर विजय प्राप्त करके संसार-सागर से पार हो जाता है।
लोभ की तरह कषाय के अन्य तीन भेदों-1. क्रोध, 2. मान, 3. माया को भी समझ लेना चाहिए। जैसे अलोभ वृत्ति से लोभ को परास्त करने को कहा गया है, उसी प्रकार क्रोध, मान और माया का प्रसंग उपस्थित होने पर, उपशमन से क्रोध को, विनय-नम्रता से मान को एवं ऋजुता-सरलता से माया को परास्त करे।
इस प्रकार कषायों पर विजय पाने वाला विजेता ही साधना के पथ पर आगे बढ़ता है और उसका मार्ग ही प्रशस्त मार्ग कहा गया है। कषायों के प्रवाह में प्रवहमान का मार्ग भयावह एवं दुःखों से भरा हुआ है। इसी प्रशस्त एवं अप्रशस्त मार्ग को बताते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम्-विणावि लोभं निक्खम्म एस अकम्मे जाणइ पासइ, पडिलेहाए नावकंखइ, एस अणगारेत्ति पवुच्चई, अहो य राओ परितप्पमाणे कालाकालसमुट्ठाई संजोगट्ठी अट्ठालोभी आलुम्पे सहसाक्कारे विणिविट्ठचित्ते, इत्थ सत्थे पुणो-पुणो, से आयबले से नाइबले से मित्तबले से पिच्चबले से देवबले से रायबले से चोरबले से अतिहिबले से किविणबले से समणबले, इच्चेएहिं विरूवरूवेहिं कज्जेहिं
1. जे य कंते पिए भोए, लद्धे विपिट्ठी कुब्बई।
साहीणे चयइ भोए, से हु चाइत्ति बुच्चई॥
-दशवैकालिंक 2, 3, 4