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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध ___ मूलार्थ-अज्ञान से आवृत्त, विवेक शून्य कितने एक कायर प्राणी परीषहों के उपस्थित होने पर वीतराग आज्ञा के विरुद्ध आचरण करके संयम-मार्ग से च्युत हो जाते हैं और कई स्वेच्छाचारी व्यक्ति हम अपरिग्रही बनेंगे, इस तरह का विचार कर तथा दीक्षा लेकर भी प्राप्त काम-भोगों का सेवन करते हैं एवं मुनि वेश धारी स्वच्छन्द बुद्धि से विषय-भोगों को प्राप्त करने के उपायों में संलग्न रहते हैं। वे विषय-भोग में आसक्त होने से मोह के कीचड़ में ऐसे फंस जाते हैं कि न इधर के रहते हैं और न उधर के, अर्थात् न तो गृहस्थ रहते हैं और न साधु ही। वे उभय जीवन से भ्रष्ट हो जाते हैं। हिन्दी-विवेचन
यह हम देख चुके हैं कि साधना का पथ कांटों का पथ है। उसमें त्याग के पुष्पों के साथ-साथ परीषहों के कांटे भी बिखरे पड़े हैं। अतः साधना-पथ पर गतिशील साधक को परीषहों का प्राप्त होना स्वभाविक है। परन्तु उस समय वह साधक साधना में संलग्न रह सकता है, जिसकी श्रद्धा दृढ़ है एवं जिसके पास ज्ञान का प्रखर प्रकाश है। पर, जो साधक निर्बल है, जिसकी ज्ञान ज्योति क्षीण है, वह परीषहों के अंधड़ में लड़खड़ा जाता है। इसी बात को सूत्रकार ने स्पष्ट करते हुए बताया है कि विवेकहीन व्यक्ति परीषहों से परास्त होकर पथ भ्रष्ट हो जाते हैं। वे विभिन्न भोगों में आसक्त होकर वीतराग की आज्ञा का उल्लंघन करते हुए भी नहीं हिचकिचाते। - ऐसे वेशधारी साधकों को “इतो भ्रष्टस्ततो नष्टः” कहा गया है। अर्थात् उनकी स्थिति धोबी के कुत्ते की तरह होती है, वह न घर का रहता है और न घाट का। इसी प्रकार ये वेशधारी मुनि साधना को हृदयंगम नहीं कर सकने के कारण न तो मुनि का धर्म ही सम्यक्तया परिपालन करके उसका लाभ उठा सकते हैं और वेष-भूषा से गृहस्थ न होने के कारण न स्वतन्त्रतापूर्वक गृहस्थ-जीवन का उपभोग कर सकते हैं। वे न तो इधर के रहते हैं और न उधर के रहते हैं, बेचारे त्रिशंकु की तरह अधर में ही लटकते रहते हैं और भोग में आसक्त होने के कारण संसार बढ़ाते हैं। परन्तु इस भवसागर से पार नहीं हो सकते। ___ अस्तु, जो वीतराग देव की आज्ञानुसार आचरण करते हैं, वे ही संसार सागर से पार होते हैं। इस बात को बताते हुए सूत्रकार कहते हैं