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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
अपने स्वभाव से, आनंद से दूर ले जाता है । प्रत्येक प्राणी सुख-दुःख से संतप्त है । यह देख-जानकर व्यक्ति को इन सबसे परे जो आनंद है, उसकी खोज करनी चाहिए । लेकिन लोक एवं प्राणी की इस अवस्था को कोई देखता ही नहीं । सभी आँख बन्द किए हुए चले जा रहे हैं। वे यह देख नहीं पाते कि जब प्रत्येक प्राणी सुख-दुःख में पड़ा हुआ है तब उस तरह का जीवन जी कर मैं कैसे एकान्त नित्य सुखी हो जाऊँगा? हमने दुःख को जीवन का एक अनिवार्य अंग मान लिया है। अतः आनंद का मार्ग खोजते ही नहीं हैं । जब सभी दुःखी हैं तो मैं भी दुःखी हूँ, ऐसा सोचकर हम अपने आपको एवं दूसरों को सांत्वना देते हैं । यह सांत्वना घातक है। इससे व्यक्ति सुख-दुःख में ही उलझा रहता है । जो सुख सापेक्ष है वह दुःख ही है। सच्चा सुख तो निरपेक्ष होता है। प्रश्न यह नहीं है कि सुख को कैसे प्राप्त करें और दुःख से कैसे छूटें । प्रश्न यह है कि कैसे दोनों से पार जाएँ, क्योंकि दोनों ही चिन्ता एवं जन्म-मरण देने वाले हैं। दोनों ही उपादेय नहीं हैं, केवल ज्ञेय हैं। यह प्रज्ञा, यह बोध किसी भवितात्मा को जागता है कि समस्त लोक सुख-दुःख के पीछे भाग रहा है और मुझे इन्द्रियों से पार जाना है। इन सुख-दुःख के पीछे नहीं भागना है।
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जब जीवन में दुःख आए, तब यह देखना कि मैं ही नहीं प्रत्येक प्राणी दुःखी है । यह हमारी दृष्टि का भ्रम है कि कोई हमें दुःखी दिखाई देता है तो कोई सुखी । वस्तुतः सुख-दुःख दोनों वेदना के उदय से होते हैं। दोनों ही वेदना स्वरूप हैं पर किसी वेदना को हम सुख मानते हैं और किसी को दुःख । जो अपने को सुखी मानते हैं, वे भी दुःखी हैं । इन्द्रियों का सुख ऐसा है जैसे खुजली का रोग होने पर खुलजाने से जो सुख
ता है। जीव इसे समझ नहीं पाता, यह तो वही समझ पाता है जो इन दोनों से परे है । इस ज्ञान के द्वारा इस लोक के, संसार के स्वरूप को जानकर व्यक्ति को जो भी समय शेष बचा है, उसे साधना में लगाना चाहिए । वस्तुतः सुख-दुःख दोनों ही एक हैं। उन्हें अलग-अलग मानना ही भ्रान्ति है । मूलतः सुख-दुःख का विभाजन करना ही गलत है।
यह कर्मों का विभाजन केवल परिचय के लिए है । साता और असाता इस प्रकार विभाजन ही मत करो। न सुख है, न दुःख है । केवल मन की कल्पना है । सब कुछ वेदनीय के उदय से आ रहा है । केवल एक वेदना अनुभव के रूप में देखो । परिस्थिति का अर्थ है जो आती है और चली जाती है, चाहे वह सुख की हो, चाहे
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