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द्वितीय अध्ययन, उद्देशक 1
रम्यमान व्यक्ति के मन में राग-द्वेष, कषाय एवं आसक्ति - युक्त भावों से कर्म का बन्ध होता है और परिणाम स्वरूप संसार के प्रवाह को प्रवहमान करने के लिए गति - प्रगति मिलती है। इस प्रकार हम देखते हैं कि गुण भी संसार के कारण हैं, इसलिए उन्हें आवर्त्त कहा गया है और वास्तव में कषाय का आधार होने के कारण उन्हें आवर्त्त-संसार कहना उचित ही है ।
यह सूर्य के उजाले की तरह स्पष्ट है कि गुणों के कारण आत्मा में तृष्णा, आसक्ति, कषाय एवं राग-द्वेष आदि का उद्भव होता है और आत्मा ऐन्द्रिय राग-रंग एवं भौतिक सुखों में संलग्न होता है, काय भोग में प्रवृत्त होता है । यों साधारणतः काम-भोग शब्द का प्रयोग विषय-वासना की प्रवृत्ति के लिए किया जाता है और काम-भोग का एक दूसरे से भिन्न अर्थ न समझ कर उसे एकार्थक ही समझा जाता है । वैषयिक दृष्टि से काम - भोग का इन्द्रियों एवं उनके विषय से सीधा संबन्ध होने से काम-भोग शब्दादि विषय रूप होने से एकरूपता के बोधक भी हैं । परन्तु इन्द्रियों एवं उनकी विभिन्नता के कारण काम भोग भी अपना-अपना भिन्न एवं स्वतंत्र अर्थ रखते हैं। कुछ ऐसे विषय हैं जिनके आकर्षण से इन्द्रियों में स्पन्दन होता है, और आत्मा उनके द्वारा हर्ष एवं शोक का संवेदन भी करती है; इस प्रकार उक्त विषय से काम-वासना उद्बुद्ध होती है परन्तु वे इन्द्रियाँ उन विषयों के साथ सीधा उपभोग नहीं करतीं और कुछ इन्द्रियाँ अपने विषयों के साथ सीधा भोगोपभोग करके ही वासना में प्रवृत्त होती हैं। इसी विभिन्नता की अपेक्षा से आगम में श्रोत्र और चक्षु इन्द्रिय को कामी और शेष इन्द्रियों को भोगी कहा है । चक्षु एवं श्रोत्र इन्द्रिय अपने विषय को ग्रहण करने में इतनी पटु हैं कि उनका स्पर्श किए बिना ही आत्मा को उनकी अनुभूति करा देती हैं, परन्तु शेष तीनों इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों का अपने साथ सीधा संबन्ध होने पर ही अथवा यों कहिए, उनका भोग - उपभोग करके ही उन्हें ग्रहण करती हैं। इस अपेक्षा से काम-भोग भिन्न अर्थ- बोधक दो विषय हैं।
कुछ भी हो, इतना तो स्पष्ट है कि काम - भोग में होने वाली प्रवृत्ति राग-द्वेषजन्य होती है। इस कारण विषय-वासना में आसक्ति बढ़ती है और उससे संसार - संबन्ध प्रगाढ़ होता है और आत्मा की गति साधनाविमुख हो जाती है और वह सांसारिक सुख-साधनों, भोगोपभोगों को बढ़ाने तथा संसार - संबन्धों में इतनी आसक्त बन जाती