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प्रथम अध्ययन, उद्देशक 7
चांदी, रत्न, सिंक्का, धन्य आदि भौतिक पदार्थ द्रव्य धन है । इससे जीवन में आसक्ति बढ़ती है, इस कारण इसे त्याज्य माना है । क्योंकि यह राग-द्वेष जन्य है तथा राग-द्वेष को बढ़ाने वाला है।
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सम्यग् दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र भाव धन- ऐश्वर्य है और यह आत्मा की स्वाभाविक निधि है। इस ऐश्वर्य का जितना विकास होता है, उतना ही राग-द्वेष का हास होता है । अस्तु, उक्त ऐवर्श्य से सम्पन्न मुनि को धनवान कहा गया है। इसका स्पष्ट अर्थ हुआ कि ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र से युक्त मुनि अनाचरणीय पाप कर्म का सेवन नहीं करता । वह 18 प्रकार के सभी पापों से दूर रहता है । इन पापों के आसेवन से आत्मा का अधःपतन होता है, इसलिए इन्हें पाप कर्म कहा गया है।
यह पहले स्पष्ट किया जा चुका है कि छह काय की हिंसा से पाप कर्म का बन्ध होता है और उससे आत्मा संसार में परिभ्रमण करता है । अतः इस बात को भली-भांति जानने एवं हिंसा का त्याग करने वाला साधु न स्वयं छह काय की हिंसा करे, न दूसरे को हिंसा करने के लिए प्रेरित करे और न हिंसक के हिंसा - कार्य का समर्थन ही करे ।
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‘अप्पाणेणं' पद से आत्मा के कर्तृत्त्व और भोक्तृत्व को सिद्ध किया गया है, अर्थात् यह बताया गया है कि आत्मा स्वयं कर्म का कर्ता है और वही स्वकृत कर्म फल का भोक्ता भी है । और 'परिण्णायकम्मे' शब्द से संयम संपन्न मुनि के लिए बताया गया है कि ज्ञ परिज्ञा से हिंसा के स्वरूप को जानकर प्रत्याख्यान परिज्ञा से उसका परित्याग करे । अर्थात् उक्त शब्द से ज्ञान और क्रिया युक्त मार्ग को स्वीकार किया गया है। प्रस्तुत विषय पर हम पिछले उद्देशकों में विस्तार से विचार कर चुके हैं । इस लिए यहां फिर से पिष्ट-पेषण करना नहीं चाहते । 'त्ति बेमि' का अर्थ भी पूर्ववत् है ।
सप्तम उद्देशक समाप्त
॥ शस्त्रपरिज्ञा प्रथम अध्ययन समाप्त ॥
केल
1. प्राणातिपात, 2. मृषावाद, 3. अदत्तादान, 4. मैथुन, 5 परिग्रह, 6. क्रोध, 7. मान, 8. माया, 9. लोभ, 10. राग, 11. द्वेष, 12. कलह, 13. अभ्याख्यान - कलंक, 14. पैशुन्य, 15. परपरिवाद, 16. रति- अरति, 17. माया - मृषा और 18. मिथ्यादर्शनशल्य | ये 18 प्रकार के पाप कहे गए हैं ।