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प्रथम अध्ययन : शस्त्रपरिज्ञा
चतुर्थ उद्देशक तृतीय उद्देशक में साधुत्व का परिपालन करने के लिए अप्काय-पानी के जीवों की रक्षा करने का आदेश दिया गया है। और उसके स्वरूप का सम्यक्तया बोध कराया गया है। चतुर्थ उद्देशक में तेजस्काय के आरम्भ-समारम्भ का त्याग करने का विधान किया गया है। और यह बताया गया है कि अप्काय की तरह तेजस्काय भी सजीव है। उसके आरम्भ-समारभ से कर्मों का बन्ध होता है, इत्यादि बातों का चतुर्थ उद्देशक में वर्णन किया है। प्रस्तुत उद्देशक का प्रथम सूत्र इस प्रकार है
- मूलम्-से बेमि णेव संय लोगं अब्माइक्खेज्जा व अत्ताणं अब्भाइक्खेज्जा, जे लोयं अब्भाइक्खइ से अत्ताणं अब्भाइक्खइ, जे अत्ताणं अब्भाइक्खइ से लोयं अब्भाइक्खइ॥32॥
छाया-सः (अहं) ब्रवीमि नैव स्वयं लोकम् अभ्याख्यायेत्, नैवात्मान मभ्याख्यायेत् यः लोकं अभ्याख्याति सः आत्मानम् अभ्याख्याति यः आत्मानमभ्याख्याति सः लोकमभ्याख्याति। ...पदार्थ-से-वह, जिसने सामान्य रूप से आत्म-तत्त्व, पृथ्वीकाय और अप्काय के जीवों का वर्णन किया है, वही मैं। बेमि-कहता हूं। सयं-अपनी आत्मा के द्वारा। लोगं-अग्निकाय रूप लोक का। णेव अब्भाक्खेज्जा-अपलाप न करे। अत्ताणं-आत्मा का। णेव अब्माइक्खेज्जा-निषेध या अपलाप न करे। जे-जो व्यक्ति। लोयं-अग्निकाय रूप लोक का। अब्भाइक्खइ-निषेध करता है। से-वह। अत्ताणं-आत्मा का। अब्भाइक्खइ-निषेध करता है। जे-जो। अत्ताणं-आत्मा का। अब्भाइक्खइ-निषेध करता है। से-वह। लोयं-अग्निकाय रूप लोक का। अब्भाइक्खइ-निषेध करता है।
मूलार्थ हे जम्बू। जिसने पहले तीन उद्देशकों में सामान्य रूप से आत्मा,