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प्रथम अध्ययन, उद्देशक 3
_ 137 लिए शस्त्र हो जाता है और दूसरे तीक्ष्ण निमित्त या साधनों से अप्काय-जल निर्जीव हो जाता है। ___ जैनागमों ने जीवों का आयुष्य दो प्रकार का माना है-1-निरुपक्रमी और 2-सोपक्रमी। जिन प्राणियों का आयुष्य जितने समय का बंधा है, उतने समय के बाद ही वे अपने प्राणों का त्याग करते हैं और उसके पहले उनकी मृत्यु नहीं होती, उन्हें निरूपक्रमी आयुष्य वाला कहते हैं, अर्थात् किसी उपक्रम या आघात के लगने पर उनका आयुष्य टूटता नहीं और जो सोपक्रमी आयुष्य वाले जीव होते हैं, उनका आयुष्य शस्त्र आदि का निमित्त मिलने पर जल्दी भी समाप्त हो सकता है। इसका यह अर्थ नहीं है कि वे अपने बांधे हुए आयुकर्म को पूरा नहीं भोगते। आयुकर्म को तो वे पूरा ही भोगते हैं, यह बात अलग है कि बहुत देर तक भोगने वाले आयुष्य को वे किसी निमित्त कारण से शीघ्र ही भोग लेते हैं। जैसे तेल से भरा हुआ दीपक रात्रि-पर्यन्त जलता रहता है, परन्तु यदि उसमें एक वर्तिका के स्थान में दो, तीन या दस-बीस वर्तिका लगा दी जाएं तो वह जल्दी ही बुझ जाएगा। रात्रि-पर्यन्त चलने वाला तेल अधिक वर्तिकाओं का निमित्त मिलने से जल्दी ही समाप्त हो जाता है। इसी तरह कुछ निमित्त या शस्त्रप्रयोग से सोपक्रमी आयुष्य वाले जीव भी अपने आयुकर्म को जल्दी ही भोग लेते हैं। अप्काय के जीव प्रायः सोपक्रमी आयुष्य वाले होते हैं, अतः शस्त्र का निमित्त मिलने से वे निर्जीव हो जाते हैं। और उस निर्जीव पानी का उपयोग करने में साधु को हिंसा नहीं लगती।
कुछ प्रतियों में "पुढो सत्थं पवेइयं” के स्थान में “पुढोऽपासं पवेइयं” पाठ भी मिलता है। उक्त पाठान्तर में 'शस्त्र' के स्थान में 'अपाश' शब्द का प्रयोग किया है। अपाश का अभिप्राय है-अबन्धन अर्थात् जिससे कर्म का बन्धन न हो उसे अपाश कहते हैं। इस दृष्टि से पूरे वाक्य का अर्थ होता है-विभिन्न प्रकार के शस्त्र प्रयोग से निर्जीव बना हुआ जल अपाश होता है, अर्थात् उसका आसेवन करने से पापकर्म का बन्ध नहीं होता, इस प्रकार भगवान ने कहा है।
1. “पुढोऽपासं पवेइयं”–एवं पृथक् विभिन्न-लक्षणेन शस्त्रेण परिणामितमुद-कग्रहणमापाशं
प्रवेदितं-आख्यातं भगवता अपाशः-अबन्धन शस्त्रं परिणामितोदकग्रहणमबन्धनमाख्यातमितियावत्।
-आचारांग सूत्र, 25, टीका