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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
मनुष्य वस्तु की उपयोगिता और अनुपयोगिता को भली-भांति समझ सकता है। साधक को हेय और उपादेय वस्तुओं का तथा उन्हें त्यागने एवं स्वीकार करने का बोध भी सम्यग् ज्ञान से ही होता है। अतः ज्ञान का उपयोग एवं महत्त्व ज्ञानी पुरुष ही जान सकता है, अन्य नहीं।
__एक अबोध बालक ज्ञान के सही एवं वास्तविक मूल्य को नहीं समझता। उसे इस बात का पता ही नहीं है कि ज्ञान जीवन के कण-कण को प्रकाश से जगमगा देता है, उज्ज्वल आलोक से भर देता है। वह यह नहीं जानता कि ज्ञान मनुष्य का अन्तर्चक्षु है, जिसके अभाव में बाह्य चक्षु होते हुए भी वह अंधा समझा जाता है और बिना शृंग-पूंछ का पशु माना जाता है। ज्ञान के इस महत्त्व से अनभिज्ञ होने के कारण ही वह दिन भर खेलता-कूदता एवं आमोद-प्रमोद करता रहता है। परन्तु ज्ञान का महत्त्व समझने के बाद उसका जीवन बदल जाता है। खेल-कूद का स्थान शिक्षा ले लेती है। वह दिन-रात ज्ञान की साधना में संलग्न रहने लगता है। यही स्थिति अज्ञ एवं ज्ञानी पुरुष की है। अज्ञ व्यक्ति जहां दिन-रात विषय-वासना में निमज्जित रहता है, भौतिक सुखों के पीछे निरन्तर दौड़ता फिरता है, वहां ज्ञानी पुरुष दिन-रात, सोते-जागते, उठते-बैठते, चलते-फिरते ज्ञान की साधना में संलग्न रहता है। प्रत्येक समय प्रत्येक क्रिया में विवेक एवं ज्ञान के प्रकाश को सामने रखकर गति करता है। वह जीवन का एक भी अमूल्य क्षण व्यर्थ की बातों में नहीं खोता। क्योंकि वह ज्ञान के, विवेक के मूल्य को जानता है और वह यह भी जानता है कि ज्ञान के उज्ज्वल प्रकाश में गति करके ही आत्मा अपने लक्ष्य पर पहुंच सकता है, अपने साध्य को सिद्ध कर सकता है। ___ वस्तुतः ज्ञान से जीवन ज्योतिर्मय बनता है। आत्मा ज्ञान के प्रकाश में ही अपने संसार-परिभ्रमण एवं उससे मुक्त होने के कारण को जान सकती है। संसार में परिभ्रमण करने का कारण कर्म है। कर्म से आबद्ध आत्मा ही विभिन्न क्रियाओं में प्रवृत्त होती है और क्रिया से फिर कर्म का संग्रह होता है। इस तरह जब तक कर्म का अस्तित्व रहता है, तब तक संसार का प्रवाह प्रवहमान रहता है। इसलिए सूत्रकार ने पिछले सूत्र में कर्म-बन्धन की कारणभूत क्रियाओं का परिज्ञान कराया है। क्योंकि उन क्रियाओं एवं उनके परिणामों का सम्यक्तया बोध होने पर साधक उनका परित्याग कर सकता है। इसलिए प्रस्तुत सूत्र में सूत्रकार ने यह स्पष्ट कर दिया है कि