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________________ प्रथम अध्ययन, उद्देशक 1 और उसकी साधना में भी तेजस्विता नहीं आ पाती। इन सबमें आत्मतत्त्व मुख्य है। उसका सम्यक्तया बोध हो जाने पर, अवशेष तीनों का ज्ञान होते देर नहीं लगती, उसमें फिर अधिक श्रम नहीं करना पड़ता; क्योंकि लोक, कर्म एवं क्रिया का आत्मा के साथ संबंध जुड़ा हुआ है। अतः शास्त्रकार का यह कथन पूर्णतया सत्य है कि जो एक को भली-भांति जान लेता है, वह सबका ज्ञान कर लेता है। यह लोक-कहावत भी सत्य है-'एक साधे सब सधे।' कर्म-बन्धन से आबद्ध आत्मा ही संसार में परिभ्रमण करती है। कर्म का कारण क्रिया है, अर्थात् क्रिया से कर्म का प्रवाह प्रवहमान रहता है। अतः अब सूत्रकार क्रिया के संबंध में कहते हैं मूलम्-अरिस्सं चऽहं, कारवेसु, चऽहं, करओ आवि समणुन्ने भविस्सामि॥7॥ छाया-अकार्षं चाहं, कारयामि चाहं, कुर्वतश्चापि समनुज्ञो भविष्यामि। पदार्थ-अकरिस्सं चऽहं-मैंने किया। कारवेसु चऽहं-मैं कराता हूँ। करओ आवि समणुन्ने भविस्सामि-करने वाले व्यक्तियों का मैं अनुमोदन-समर्थन करूँगा। - मूलार्थ-मैंने किया था, मैं कराता हूं और करने वाले अन्य व्यक्तियों का मैं अनुमोदन-समर्थन करूंगा। हिन्दी-विवेचन ___ व्यक्ति के द्वारा निष्पन्न होने वाली क्रिया कार्य के करने, कराने और समर्थन-अनुमोदन करने की अपेक्षा से तीन प्रकार की है और संसार का प्रत्येक व्यक्ति, प्रत्येक प्राणी तीनों कालों में क्रियाशील रहता है। इसलिए क्रिया के उक्त भेदों का तीनों कालों के साथ सम्बन्ध जुड़ा हुआ है और इस अपेक्षा से क्रिया के 9 भेद होते हैं; क्योंकि भूत, वर्तमान और भविष्य ये तीन काल हैं और प्रत्येक काल के तीन भेद होने से कुल नव भेद बनते हैं। भूतकाल के तीन भेद इस प्रकार बनते हैं___1. मैंने अमुक क्रिया का अनुष्ठान किया था। . 2. मैंने अमुक कार्य दूसरे व्यक्ति से करवाया था।
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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