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प्रथम अध्ययन, उद्देशक 1
नहीं रहता। क्योंकि चारित्र का अर्थ है-आत्मा में प्रविष्ट कर्मसमूह को निकालने वाला, अर्थात् आत्मभवन में निवसित कर्मसमूह को खाली करने वाला। इससे यह भलीभांति स्पष्ट हो गया है कि चारित्र तभी तक है, जब तक कर्मों का प्रवाह प्रवहमान है। जिस समय जीव-आत्मारूपी सरोवर कर्मरूपी पानी से सर्वथा खाली हो जाता है, तब फिर चारित्र की अपेक्षा नहीं रहती है। अस्तु, चारित्र की आवश्यकता साधक अवस्था में है, न कि सिद्ध अवस्था में। इसलिए चारित्र भी व्यवहार की अपेक्षा जीव का लक्षण है। तप चारित्र का ही भेद है, इसलिए वह भी आत्मा में सदासर्वदा नहीं पाया जाता। परन्तु ज्ञान, दर्शन और वीर्य से आत्मा में सदा-सर्वदा पाए जाते हैं। इसलिए वीर्य और उपयोग को आत्मा का निश्चय रूप से लक्षण कहा गया है। ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य का आत्मा में सदा सद्भाव रहता है। यह बात अलग है कि कर्मों के साधारण या प्रगाढ़ आवरण से आत्मज्योति का या अनंत चतुष्क का कुछ या बहुत-सा भाग आवृत हो जाए, परंतु उसके अस्तित्व का सर्वथा लोप एवं विनाश नहीं होता। . : प्रश्न पूछा जा सकता है कि जब प्रत्येक आत्मा ज्ञानस्वरूप है, तब फिर अनेक जीव अज्ञ-मूर्ख क्यों दिखाई देते हैं? यह हम पहले ही स्पष्ट कर चुके हैं कि आत्मा ज्ञानयुक्त है। ज्ञान के अभाव में उसका अस्तित्व रह ही नहीं सकता। जैसे सूर्य की किरणे एवं प्रखर प्रकाश सदा उसके साथ रहता है। जब बादल छा जाते हैं या राहु का विमान उसे प्रच्छन्न कर लेता है, तब भी रजत-रश्मियाँ उस सहस्ररश्मि से अलग नहीं होतीं, उनका अस्तित्व उस समय भी बना रहता है। परन्तु बादलों एवं राहु के विमान का कालिमामय गहरा आवरण होने से सहस्ररश्मि-सूर्य का प्रखर प्रकाश हमें दिखाई नहीं देता। इतना होने पर भी उसके अस्तित्व का पता लगता रहता है। भले ही कितने ही घनघोर बादल क्यों न छाए हों, उनमें से छन-छन कर आता हुआ मन्द-मन्द प्रकाश दिन की प्रतीति करा ही देता है। इसी तरह ज्ञानावरणीय कर्मवर्गणा के पुद्गल-परमाणुओं के आवरण के कारण आत्मा का अनन्तज्ञान-भानु प्रच्छन्न रहता है। कभी-कभी यह आवरण इतना गहरा हो जाता है कि आत्मा अपने पूर्व स्थान को ही भूल जाता है, अनेक जीवों की स्मरणशक्ति या जानने-पहचानने की
1. एयं चयरित्तकरं चारित्तं होइ आहियं।
उत्तरा., 28/33