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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
परिबोध - ज्ञान ।
परिमित - सीमित ।
परिवन्दन - अभिनन्दन या प्रशंसा ।
परिव्राजक - संन्यासी ।
परीषह - शीत उष्णादि का कष्ट ।
परेतर - उपदेश - पर का अर्थ यहां तीर्थंकर है । अतः तीर्थंकर के अतिरिक्त किसी अन्य महापुरुष का उपदेश ।
पर्युषित- बासी आहार ।
पर्व वीज - जिस वनस्पति की गांठों में बीज होता है, गन्ना, बांस आदि । प्राणातिपातिनी क्रिया - अपनी या अन्य कीं आत्मा को कष्ट - पीड़ा देना या किसी के प्राणों का नाश कर देना ।
पादोपगमन- - मृत्यु को निकट जानकर साधक सदा के लिए आहार- पानी का त्याग करके निश्चेष्ट होकर वृक्ष की टूटी हुई शाखा की तरह निष्कम्प भाव से पड़ा रहता है।
पार्श्वस्थ-शिथिलाचारी या साध्वाचार से गिरे हुए अथवा जिनके पास चारित्र का प्रतीक वेश तो है, परन्तु जीवन में आचरण क्रियान्वित नहीं है।
पुद्गल-जड़ पदार्थ अणु-परमाणु पुद्गल का शुद्ध रूप है, अनन्त- अनन्त परमाणुओं के मिलने से एक स्कन्ध बनता है, जिसे आत्मा कर्म रूप से ग्रहण करता है और वही स्कन्ध इन्द्रिय एवं मन के द्वारा जाना देखा जा सकता है
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पुनर्जन्म - ज - जब तक कर्मों का पूर्णतः क्षय न हो जाए, तब तक मृत्यु पुनः जन्म ग्रहण करना ।
पुरुष - आत्मा । सांख्य दर्शन में आत्मा को पुरुष शब्द से संबोधित किया है। पुरुष प्रमाण मार्ग - चलते समय अपने सामने का साढ़े तीन हाथ लम्बा क्षेत्र |
पैगम्बर - खुदा (ईश्वर) का सन्देश वाहक ।
पोत - चर्ममय थैली से उत्पन्न होने वाले प्राणी, हाथी आदि ।
के बाद