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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
निमज्जित-डूबा हुआ। नियागप्रतिपन्न-सम्यग् दर्शन, ज्ञान और चारित्र से युक्त। निराम-पक्व, निष्पाप और आधाकर्म आदि दोषों से रहित। निरावरण-आचरण या कर्म एवं अज्ञान के परदे से रहित। निरुक्ति-व्याख्या।
निरुपक्रमौआयुष्य-किसी प्रकार का उपक्रम-आघात लगने पर भी जीव का आयुष्य कम नहीं होता। ___निर्ग्रन्थ-धन-धान्य आदि द्रव्य-परिग्रह और राग-द्वेष, काम, क्रोधादि भाव-परिग्रह की गांठ से रहित साधु।
निर्जरा-आत्मा पर चिपटे हुए कर्मों को तप स्वाध्यायादि साधना के द्वारा आत्मा से अलग करना।
निर्द्वन्द्व-द्वन्द्व-संघर्ष से रहित।
नियुक्ति-जैन आगमों (शास्त्रों) पर प्राकृत भाषा में की गई गद्य या पद्यमय व्याख्या (टीका)।
निर्वाण-मुक्ति। निर्वेद-वैराग्य भाव या वेद-सांसारिक विषय-वासना से निवृत्त हीना। निवृत्ति-अपनी वृत्ति को संसार से हटा लेना। निष्कम्प-कम्पन्न-रहित, स्थिर।
निष्कर्म-दर्शी-निष्कर्म सिद्ध बनने की दृष्टि (भावना) या सिद्धत्व को प्राप्त करने का अभिलाषी। निश्चय दृष्टि-वास्तविक एवं यथार्थ दृष्टि। नैसर्गिक-स्वभाव से या दूसरे के उपदेश के बिना ज्ञान का होना।
पंच मुष्टि हुँचन-सिर के सभी बालों का जो पांच मुष्टि स्थान में विभक्त हैं, अपने हाथ से लुंचन करना (उखाड़ना)।
पंचाचार-1. ज्ञान आचार, 2. दर्शन आचार, 3. चारित्र आचार, 4. तप आचार