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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
त्रीन्द्रिय-जिन प्राणियों के शरीर, जिह्वा और घ्राण-नाक केवल तीन इन्द्रियां ही हैं।
त्रैकालिक सत्य-आगत, वर्तमान और अनागत तीनों काल में समान रूप से विद्यमान रहने वाला।
दण्ड रूप-हिंसक।
दर्शनमोहनीय-सम्यक् श्रद्धा पर मोह कर्म का आवरण, जिससे जीव तत्त्वों पर श्रद्धा नहीं कर पाता।
दर्शन सप्तक-अनन्तानुबंधी प्रगाढ़ क्रोध, मान, माया, लोभ, मिथ्यात्व-मोहनीय, सम्यक्त्व-मोहनीय और मिश्र-मोहनीय इन सात प्रकृतियों को दर्शन सप्तक कहते हैं। जब तक इनका उदय रहता है, तब तक सम्यग् दर्शन की प्राप्ति नहीं होती।
दर्शनावरणीय कर्म-अवलोकन करने की सामान्य दृष्टि को आवृत करने वाला । कर्म।
दशवैकालिक सूत्र-शंयभवाचार्य द्वारा संकलित और चार मूल शास्त्रों में से पहला मूल शास्त्र, जिसमें साध्वाचार का वर्णन है।
दुख प्रतिघात-दुःखों का नाश करना या दुःखों से छुटकारा पाना। दुष्प्रत्याख्यान-बुरा या मिथ्या त्याग।
देवदूष्य वस्त्र-तीर्थंकरों को दीक्षा लेते समय इन्द्र द्वारा दिया जाने वाला एक वस्त्र। तीर्थंकर इस वस्त्र के अतिरिक्त अन्य वस्त्र ग्रहण नहीं करते।
देवर्द्धिगणि-क्षमा-श्रमण-भगवान महावीर के लगभग 900 वर्ष बाद होने वाले आचार्य। इन्होंने ही वी. सं. 980 में आगमों को सर्वप्रथम लिपिबद्ध किया था। __द्रव-द्रवित-तरल (स्पुनपक) पदार्थ, परन्तु यहां इसका अर्थ है, संयम-साधना या राग-द्वेष से निवृत्त होना।
द्रविक-राग-द्वेष से निवृत्त होने वाला साधक। द्रव्य-वस्तु का मूल स्वभाव पदार्थ। द्रव्य-उपधि-कर्म एवं कर्मजन्य साधन-मन-वचन और काय (शरीर) योग। द्वादशांगी-12 अंग सूत्र, जिन्हें शास्त्र या आगम भी कहते हैं।