________________
पदार्थ प्रतिबिम्बित हो सकते हैं, अनन्त नहीं। अतः मानना पड़ेगा कि प्रत्येक पदार्थ का ज्ञान आत्मव्यापक होता है। प्रत्येक प्रदेश में अनन्त ज्ञान और अनन्त दर्शन है तथा उनके समुदाय में भी अनन्त ज्ञान-दर्शन है, जैसे अनावृत्त एक प्रदेश भी केवलज्ञान एवं दर्शन है, उसमें भी व्यापक है, वैसे ही अन्य प्रदेशों में भी व्यापक है।
केवलदर्शन सामान्य का प्रत्यक्ष करता है और केवलज्ञान विशेष का। एक समय में सब पदार्थों का सामान्य प्रतिभास हो सकता है, किन्तु उसी समय सब पदार्थों का विशेष प्रतिभास भी होता है, ऐसा मानना युक्तिसंगत प्रतीत नहीं होता ।
केवली के एक समय में एक साथ दो उपयोग न मानने का कारण सिर्फ यही है । जिस समय केवली का ज्ञान जब विशेष को ग्रहण करता है, उस समय वह सामान्य का प्रतिभास नहीं कर सकता। जब सामान्य का प्रतिभास हो रहा हो, तब विशेष का नहीं, यह कथन उस अविभाज्य काल का है, जिस का विभाग केवलज्ञानी के ज्ञान से भी नहीं हो सकता ।
एक मनुष्य बहुत ऊंचे मीनार पर खड़ा चारों ओर भूमि को देख रहा है या महानगर को देख रहा है। ज्यों-ज्यों क्षेत्र विशाल होता जाएगा, त्यों-त्यों विशेषता के अंश विषय बाहर होते जाएंगे, उन सब की समानता दर्शन के विषय में रहती जाएगी। जब यह महासमानता सर्वद्रव्य, सर्वक्षेत्र, सर्वकाल और सर्वभावों में व्याप्त हो जाती है, तब विशेष अंश उसके विषय से बाहर हो जाते हैं। जब केवली का उपयोग विशेष अंश ग्राही होता है, तब महासामान्य विषय से बाहर हो जाता है। दर्पण में या फोटो में एक साथ अनेक प्रतिबिम्ब जब हम देखते हैं, तब वह सामान्य कहलाता है, जब प्रतिबिम्बं या फोटो में से किसी एक को पहचानने के लिए उपयोग लगाते हैं, तब वह उपयोग विशेष अंशग्राही कहलाता है। इसी प्रकार केवली का भी जब सामान्य उपयोग चल रहा है, तब अनाकारोपयोग कहलाता है, किन्तु जब विशेष की ओर उपयोग लगा हुआ है, तब अनन्त में से किसी एक विषय पर लगता है, एक साथ अनन्तं विषयों को एक समय में नहीं जानता।
किसी व्यक्ति ने केवली से पूछा- भगवन्! अमुक नाम वाला व्यक्ति मर कर कहां उत्पन्न हुआ है? किस गति में? कितने भव शेष करने रहते हैं? चरम शरीरी भव कैसा गुजरेगा? जब केवली अनन्त जीवों में से किसी एक को, एक समय में ही जान लेता है, तब विशेष उपयोग होता है, यह जानना केवल - ज्ञान का काम है। केवल दर्शन से निगोद में अनन्त जीवीं का प्रत्यक्ष किया जाता है, किन्तु उन में से कौन-सा जीव चरम शरीरी बनने वाला है, यह केवलज्ञान प्रत्यक्ष करता है, न कि केवलदर्शन। अमुक जीव अभव्य है, कृष्णपक्षी है अथवा अनंत संसारी है, यह केवलज्ञान निर्णय देता है । केवलदर्शन तो अनन्त जीव मात्र को देखने का काम करता है। अनाकार उपयोग में अभेदभाव होता है, और साकार-उपयोग में भेदभाव, भेदभाव तो पर्याय में रहता है।
❖ 89❖