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________________ केवलज्ञान क्यों नहीं? इसके उत्तर में कहा जा सकता है कि अवधिज्ञान की समानता जितनी मन:पर्यव के साथ है, उतनी केवलज्ञान के साथ नहीं, जैसे कि .१. छद्मस्थ-अवधिज्ञान जैसे छद्मस्थ को होता है, वैसे ही मन:पर्यवज्ञान भी छद्मस्थ को होता है, दोनों में इस अपेक्षा से समानता है। २. विषय-अवधिज्ञान का विषय जैसे रूपी द्रव्य हैं, अरूपी नहीं, वैसे ही मनःपर्यवज्ञान का विषय भी मनोवर्गणा के पुद्गल हैं। ___३. उपादानकारण-अवधिज्ञान जैसे क्षायोपशमिक है, वैसे ही मन:पर्यवज्ञान भी है, इस दृष्टि से भी दोनों में साधर्म्य है। ४. प्रत्यक्षत्व-अवधिज्ञान जैसे विकलादेश पारमार्थिक प्रत्यक्ष है, वैसे ही मन:पर्यवज्ञान भी है, इस दृष्टि से भी दोनों में साधर्म्य है। ५. संसार भ्रमण-अवधिज्ञान से प्रतिपाति होकर जैसे उत्कृष्ट देशोनअर्द्धपुद्गलपरावर्तन कर सकता है, वैसे ही मनःपर्यवज्ञान के विषय में भी समझ लेना चाहिए, इस कारण भी दोनों में समानता है। मनःपर्यव और केवलज्ञान में परस्पर साधर्म्य अब प्रश्न उत्पन्न होता है कि मन:पर्यवज्ञान के पश्चात् केवलज्ञान का क्रम क्यों रखा है? इसके उत्तर में कहा जा सकता है कि जितने क्षयोपशमजन्य ज्ञान हैं,उनका न्यास पहले किया गया है। तथा मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान की कुछ समानता भी है, जैसे १. संयतत्व-उक्त दोनों ज्ञान संयत को ही हो सकते हैं, अविरति या विरताविरति को नहीं। २. अप्रमत्तत्व-मन:पर्यवज्ञान जैसे ऋद्धिमान, अप्रमत्तसंयत को ही हो सकता है, वैसे ही केवलज्ञान भी अप्रमत्त संयतों को ही हो सकता है। ३. अविपर्ययत्व-जैसे मन:पर्यवज्ञान अज्ञान के रूप में परिणत नहीं हो सकता, वैसे ही केवलज्ञान भी नहीं हो सकता। अब प्रश्न उत्पन्न होता है कि केवलज्ञान सब ज्ञानों में श्रेष्ठतम है, फिर उसे पहला स्थान न देकर अन्तिम स्थान दिया है, यह कहां तक उचित है? इसके उत्तर में कहा जा सकता है कि जो ज्ञानचतुष्टय को प्राप्त करने की योग्यता रखता है वह केवलज्ञान को भी नियमेन प्राप्त कर सकता है। जब तक क्षायोपशमिक ज्ञान पहले प्राप्त नहीं कर लेता, तब तक केवलज्ञान नहीं हो सकता, यह शास्त्रीय नियम है। उत्पन्न होने वाले आश्रयी किसी को मति-श्रुत होने के बाद केवलज्ञान होता है, किसी को मति-श्रुत-अवधि होने के पश्चात् केवलज्ञान होता है, किसी को मति-श्रुत-मन:पर्यवज्ञान होने पर फिर केवलज्ञान होता है - * 85 *
SR No.002205
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherBhagwan Mahavir Meditation and Research Center
Publication Year2004
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size12 MB
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