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________________ पूर्वो की कुल पद गणना 1086856005 इतने परिमाण का मानते हैं। अतः इसकी अपेक्षा इह यत्रार्थोपलब्धिस्तत्पदम् यह मान्यता अधिक संगत प्रतीत होती है। दिगम्बर परम्परा में जो पद परिमाण तथा बारह अंग सूत्रों की पदगणना लिखी है, जिन मुनिवरों ने अध्ययन करते हुए सैंकड़ों तथा लाखों पूर्वो की आयु व्यतीत की है, यदि वे आयुपर्यन्त 184 शंख से अधिक अक्षर परिमाण वाले सम्पूर्ण श्रुतज्ञान को प्राप्त कर सकते हैं, तो इसमें किसी को कोई आपत्ति नहीं है, किन्तु दस-बीस वर्षों में इतने अरबों की संख्या वाले पद परिमाण का अध्ययन करना अशक्य ही है। श्वेताम्बर आम्नाय में एक पद कितने अक्षरों का होता है, इसका कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं है। ‘इह यत्रार्थोपलब्धिस्तत्पदम्' इस सिद्धान्त के अनुसार 'एगे आया' 'एगे धम्मे' तथा . असिप्पजीवी, अगिहे, अमित्ते, जिइंदिए, सव्वतो विप्पमुक्के। . अणुक्कसाई, लहु, अप्पभक्खी, चिच्चा गिह, एगच्चरे, स, भिक्खू॥ इस प्रकार भिन्न-भिन्न सुबन्त, तिङन्त और अव्यय पदों को सम्मिलित करके जितने भी एक अंग सूत्र में पद आएं, उन सबकी पद गणना से आचारांग आदि बारह अंगों के यदि परिमाण लिए जाएं, तो यह बात हृदयंगम हो सकती है। .. अब प्रश्न उत्पन्न हो सकता है कि विपाक सूत्र इतना महाकाय आगम नहीं है, जिसमें 18432000 पद परिमाण हों, यह बात कैसे घटित हो सकती है? आज कल के युग में तो इतने परिमाण वाला कोई भी सूत्र नहीं है। __इसके उत्तर में कहा जाता है कि मानों राजा के जीवन का परिचय एक हजार शब्दों में दिया है। एक हजार शब्दों में एक रानी का। तो किसी राजा की पांच सौ रानियां हुईं, उनके जीवन का भी इसी क्रम से परिचय दिया हो और इसी प्रकार राजकुमार, राजकन्या, वन, नगर, यक्षायतन, नंदी, तालाब, श्रमणोपासक, श्राविका, साधु, साध्वी, तीर्थंकर भगवान के विषय में यदि पहले किसी आगम में लिखा जा चुका हो तो अन्य आगमों में वह सारा पाठ नहीं दिया जाता, उद्धरण अवश्य दिया जाता है। 'जहा चम्पानयरी, जहा कोणियराया, 'जहा पुण्णभद्दे चेइए, जहा चेलणा, जहा सुबाहुकुमारे, जहा धन्ना अणगारे, जहा काली अज्जा, इत्यादि सब पाठों को यदि मिलाया जाए, तो पद परिमाण उचित प्रतीत हो जाता है। जिज्ञासु एक बार जिसका वर्णन विस्तृत रूप में पढ़ लेता है, पुनः पुनः उन्हीं शब्दों को दोहराना उचित नहीं समझता। 'जहा चम्पा नयरी' इतना संकेत पढ़ते ही उववाई का सारा पाठ ध्यान में आ जाता है। जो सामान्य वर्णन से विलक्षण है, बस उनका ही सूत्रकारों ने उल्लेख किया है। सामान्य वर्णन 'जहा' कह कर संकेत से ज्ञान करा देता है। इस रीति से उक्त सूत्र का पद परिमाण संभव है। सम्भवतः सूत्रकारों की यही शैली रही हो। ܀ 81܀
SR No.002205
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherBhagwan Mahavir Meditation and Research Center
Publication Year2004
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size12 MB
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