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परिशिष्ट २
सिद्ध-श्रेणिका-परिकर्म के १४ भेदों की संक्षिप्त व्याख्या
१. मातृकापद–उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य इस त्रिपदी को मातृका पद कहते हैं। सिद्धों में इसे कैसे घटाया जा सकता है ? संभव है इस पद का यह अर्थ गर्भित हो कि सिद्धत्व प्राप्त करने के लिए जीव के सम्मुख पांच दुर्गम घाटियां आती हैं, जिन्हें सुप्रयत्न से पार किया जा • सकता है। जब जीव अनन्तानुबन्धि कषायचतुष्क और मिथ्यात्वादि दर्शनत्रिक क्षय करता है, तब उसका क्षायिकभाव और सिद्धत्व का प्रारम्भ होता है। जब वह जीव अप्रत्याख्यानकषायचतुष्क इन सात प्रकृतियों का आत्यन्तिक क्षय करता है, तब वह उसकी दूसरी विजयश्री है। प्रत्याख्यानावरणीय कषाय चतुष्क को जब वह क्षय करता है, यह उसकी तीसरी जीत है। इसी प्रकार संज्वलन कषायचतुष्क के सर्वथा क्षय करने से चौथी विजय है । और मोहकर्म के साथ शेष घनघातिकर्मों का विलय होते ही कैवल्य प्राप्त हो जाता है। जब वह भवोपग्राहि कर्मों को क्षय करता है, तब औदयिक, औपशमिक, क्षायोपशमिक और भव्यत्व इन सब भावों का विलय हो जाता है, यह व्यय है। क्षायिक भाव और पारिणामिक ये दो भाव ही शेष रह जाते हैं। पूर्णतया क्षायिकभाव में आ जाना ही उत्पाद है। सिद्धत्व का स्थायी, ध्रुव और नित्य रहना ही ध्रौव्य है। इस प्रकार उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य सिद्धों में पाया जाता है। उपयोग की अपेक्षा से भी सिद्धों में त्रिपदी घटित होती है। इस प्रकार सिद्धों के विषय में विवेचन किया गया है।
२. एकार्थकपद - जो शब्द सिद्ध पद के द्योतक हैं, संभव है उनका अर्थ व्युत्पत्ति के द्वारा निकालने की शैली इस पद से गर्भित हो, जैसे कि सिद्ध शब्द का अर्थ कृतकृत्य है, जिन्होंने करणीय कार्य सब कर लिए हैं, वे सिद्ध कहलाते हैं।
जिन्होंने अष्टविध बद्धकर्मों को प्रचण्डशुक्लध्यान के द्वारा भस्मसात् कर दिया है, उन्हें सिद्ध कहते हैं।
'षिधु गतौ ' धातु से भी सिद्ध बनता है। एक बार सिद्धत्व प्राप्त करने के पश्चात् पुनः संसारावस्था में लौटकर नहीं आने वालों को सिद्ध कहते हैं।
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