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श्रुतज्ञान का अधिकारी कौन ? कन्या, लक्ष्मी और श्रुतज्ञान ये सब अधिकारी को ही दिए जाते हैं, अनधिकारी को देने से सिवाय हानि के और कोई लाभ नहीं है। श्रुतज्ञान देना गुरु के अधीन है। यदि शिष्य सुपात्र है तो श्रुतज्ञान देने में गुरु कभी भी कृपणता न करे, किन्तु कुशिष्य को श्रुतज्ञान देने से प्रवचन की अवहेलना होती है। सर्प को दूध पिलाने से पीयूष नहीं बल्कि विष ही बनता है। अविनीत, रसलोलुपी, श्रद्धाविहीन तथा अयोग्य ये श्रुतज्ञापन के कथंचित् अनधिकारी हैं, किन्तु हठी और मिथ्यादृष्टि तो सर्वथा ही अनधिकारी हैं। ____ बुद्धि स्वतः चेतना रूप है, वह किसी न किसी गुण या अवगुण से अनुरंजित रहती है। जो बुद्धि गुणग्राहिणी है, वही श्रुतज्ञान के योग्य है, शेष अयोग्य। पूर्वधर और धीर पुरुषों का कहना है कि पदार्थों का यथातथ्य स्वरूप बतलाने वाले आगम और मुमुक्षुओं को यथार्थ शिक्षा देने वाले शास्त्र इनका ज्ञान तभी हो सकता है, जब कि विधिपूर्वक बुद्धि के आठ गुणों के साथ उनका अध्ययन किया जाए। जो व्रतों का निरतिचार पालन करते हुए परीषह आदि से विचलित नहीं होते, उन्हें धीर कहते हैं। गाथा में आगम और शास्त्र इन दोनों को एक पद में ग्रहण किया है। इसका सारांश यह है-जो आगम है, वह निश्चय ही शास्त्र भी है, किन्तु जो शास्त्र है, वह आगम हो और न भी हो। क्योंकि अर्थशास्त्र, कोकशास्त्र आदि भी शास्त्र कहलाते हैं। अतः सूत्रकार ने गाथा में आगमशास्त्र का प्रयोग किया है। आगम से सम्बन्धित शास्त्र ही वास्तव में सूत्रकर को अभीष्ट है, अन्य नहीं। आगम विरुद्ध ग्रंथों से यदि सर्वथा निवृत्ति पाई जाए, तभी आगम-शास्त्रों का अध्ययन किया जा सकता है। वृत्तिकार ने भी अपने शब्दों में इस विषय का उल्लेख किया है
"आगमेत्यादि-आ अभिविधिना सकलश्रुतविषयव्याप्तिरूपेण मर्यादया या यथावस्थितप्ररूपणारूपया गम्यन्ते-परिच्छिद्यन्तेऽर्था येन स आगमः सचैवं व्युत्पत्या अवधिकेवलादिलक्षणोऽपि भवति, ततस्तद्व्यवच्छेदार्थं विशेषणान्तरमाह-शास्तति शिष्यतेऽनेनेति शास्त्रमागमशास्त्रम्। आगमग्रहणेन षष्टीतंत्रादि कुशास्त्रव्यवच्छेदः।
बुद्धि के आठ गुण जो मनुष्य बुद्धि के आठ गुणों से सम्पन्न है, वही श्रुतज्ञान से समृद्ध हो सकता है। श्रुतज्ञान आत्मा की सम्पत्ति है, जिसके बिना दुर्गति में ठोकरें खानी पड़ती हैं और उस श्रुत के सहयोग से आत्मा केवलालोक तक पहुंचने में समर्थ हो जाता है। निम्नलिखित आठ गुण श्रुतज्ञान के लाभ में असाधारण कारण हैं, जैसे कि
१. सुस्सूसइ-इसका अर्थ है-उपासना या सुनने की इच्छा, जिसे जिज्ञासा भी कहते हैं। सर्वप्रथम साधक विनययुक्त होकर गुरुदेव के चरणकमलों में वन्दन करे, फिर उनके मुखारविन्द से निकले हुए सुवचनरूप सूत्र व अर्थ सुनने की जिज्ञासा व्यक्त करे। जब तक जिज्ञासा
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