________________
जीव भी अनन्त हैं एवं अभवसिद्धिक भी अनन्त । जो अनादि पारिणामिक भाव होते हुए . सिद्धिगमन की योग्यता रखते हैं, वे भव्य कहलाते हैं, इसके विपरीत अभव्य, वे जीव भी अनन्त हैं। वास्तव में भव्यत्व- अभव्यत्व न औदयिक भाव है, न औपशमिक, न क्षायोपशमि और न क्षायिक, इनमें से किसी में भी इनका अन्तर्भाव नहीं होता । अनन्त सिद्ध हैं और अनन्त संसारी जीव हैं। द्वादशांग गणिपिटक में भावाभाव, हेतु - अहेतु, कारण- अकारण, जीव- अजीव, भव्य-अभव्य, सिद्ध-असिद्ध - इनका वर्णन विस्तारपूर्वक किया गया है।
द्वादशांग - विराधना - फल
मूलम्-इच्चेइअं दुवालसंगं गणिपिडगं तीए काले अणंता जीवा आणाए विराहित्ता चाउरतं संसारकंतारं अणुपरिअट्टिसु ।
इच्चेइअं दुवालसंगं गणिपिडगं पडुप्पण्णकाले परित्ता जीवा आणाए विराहित्ता चाउरंतं संसारकंतारं अणुपरिअट्टंति ।
इच्चेइअं दुवालसंगं गणिपिडगं अणागए काले अणंता जीवा आणाए विराहित्ता चाउरंतं संसारकंतारं अणुपरिअट्टिस्संति ।
छाया-इत्येतद् द्वादशांगं गणिपिटकमतीते कालेऽनन्ता जीवा आज्ञया विराध्य चतुरन्तं संसारकान्तारमनुपर्यटिषुः ।
इत्येतद् द्वादशांगं गणिपिटकं प्रत्युत्पन्नकाले परीता जीवा आज्ञया विराध्य चतुरन्तं संसारकान्तारमनुपर्यटन्ति ।
इत्येतद् द्वादशांगं गणिपिटकमनागते कालेऽनन्ता जीवा आज्ञया विराध्य चतुरन्तं संसारकान्तारमनुपर्यटिष्यन्ति ।
पदार्थ-इच्चेइअं -इस प्रकार यह इस, दुवालसंगं गणिपिडगं- द्वादशांग गणिपिटक की, तीए काले - अतीत काल में, अणंता जीवा - अनन्त जीवों ने, आणाए - आज्ञा से, विराहित्ता - विराधना कर, चाउरंत - चारगतिरूप, संसारकंतारं संसार रूप कान्तार में, अणुपरिअंट्सु - परिभ्रमण किया।
इच्चेइअं-इस प्रकार इस, दुवालसंगं गणिपिडगं - द्वादशांग गणिपिटक की, पडुप्पन्नकाले - प्रत्युत्पन्न काल में, परित्ता जीवा - परिमित जीव, आणाए विराहित्ता - आज्ञा से विराधना कर, चाउरंतं-चार गति रूप, संसारकंतारं संसार रूप कान्तार में, अणुपरिअट्टन्ति - परिभ्रमण करते हैं।
- इस प्रकार इस, दुवालसंगं - द्वादशांग, गणिपिडगं - गणिपिटक की, अणागए
❖498❖
इच्चेइअं -
*