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________________ परिमाणं- परिमाण है, जिण-मणपज्जव - ओहिनाण - जिन, मनः पर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, अ- और, सम्मत्तसुअनाणिणो - सम्यक् समस्त श्रुतज्ञानी, बाई- वादी, अणुत्तरगई - अनुत्तर गति, अ-पुनः, उत्तरवेउव्विणो- उत्तरवैक्रिय, अ-पुनः, मुणिणो - मुनि, जत्तिया - जितने, सिद्धा-सिद्ध हुए, जह-जैसे, सिद्धिपहो - सिद्धि पथ का, देसिओ- उपदेश दिया, चऔर, जच्चिरं कालं - जितनी देर, पाओवगया - पादपोपगमन किया, जहिं-जिस स्थान पर, जत्तियाई भत्ताई - जितने भक्त, छेइत्ता - छेदन कर, जे- जो, तिमिरओघविप्पमुक्का - अज्ञान अन्धकार के प्रवाह से मुक्त, मुणिवरुत्तमा -मुनियों में उत्तम, अंतगडा - अन्तकृत हुए, - और, मुक्खसुहमणुत्तरं - मोक्ष के अनुत्तर सुख को, पत्ता- प्राप्त हुए, एवमाइ-इत्यादि, एवमन्ने अ- अन्य, भावा-भाव, मूलपढमाणुओगे - मूलप्रथमानुयोग में, कहिआ - कहे गए हैं। सेतं मूलपढमाणुओगे - यह मूलप्रथमानुयोग का वर्णन है। च - भावार्थ-शिष्य ने पूछा-भगवन् ! वह अनुयोग कितने प्रकार का है ? आचार्य उत्तर में बोले- वह दो प्रकार का है, जैसे- १. मूलप्रथमानुयोग और २. गण्डिकानुयोग । मूलप्रथमानुयोग में क्या वर्णन है ? मूलप्रथमानुयोग में अर्हन्त भगवन्तों के पूर्वभवों का वर्णन, देवलोक में जाना, देवलोक का आयुष्य, देवलोक से च्यवन कर तीर्थंकर रूप में जन्म, देवादिकृत्य जन्माभिषेक तथा राज्याभिषेक, प्रधान राज्यलक्ष्मी, प्रव्रज्यासाधु-दीक्षा तत्पश्चात् उग्र-घोर तपश्चर्या, केवलज्ञान की उत्पत्ति, तीर्थ की प्रवृत्ति करना, उनके शिष्य, गण, गणधर, आर्यिकायें और प्रवर्त्तिनियां, चतुर्विध्र संघ का जो परिमाण है, जिन-सामान्यकेवली, मनः पर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी और सम्यक् (समस्त ) श्रुतज्ञानी, वादी, अनुत्तरगति और उत्तरवैक्रिय, यावन्मात्र मुनि सिद्ध हुए, मोक्ष का पथ जैसे दिखाया, जितने समय तक पारदपोपगमन संथारा-अनशन किया, जिस स्थान पर जितने भक्तों का छेदन किया, और अज्ञान अन्धकार के प्रवाह से मुक्त होकर जो महामुनि मोक्ष के प्रधान सुख को प्राप्त हुए इत्यादि । इसके अतिरिक्त अन्य भाव श्री मूलप्रथमानुयोग में प्रतिपादन किए गए हैं। यह मूल प्रथमानुयोग का विषय संपूर्ण हुआ। टीका-इस सूत्र में अनुयोग का वर्णन किया गया है। जो योग अनुरूप या अनुकूल है, उसको अनुयोग कहते हैं अर्थात् जो सूत्र के अनुरूप सम्बन्ध रखता है, वह अनुयोग है। यहां अनुयोग के दो भेद किए गए हैं, जैसे कि मूलप्रथमानुयोग और गण्डिकानुयोग । मूल प्रथमानुयोग में तीर्थंकर के विषय में विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है, जिस भव में उन्हें सम्यक्त्व की प्राप्ति हुई, उस भव से लेकर तीर्थंकर पद पर्यन्त उनकी जीवनचर्या का वर्णन किया है। पूर्वभव, देवलोकगमन, आयु, च्यवन, जन्माभिषेक, राज्यश्री, प्रव्रज्याग्रहण, उग्रतप, केवलज्ञान उत्पन्न होना, तीर्थप्रवर्त्तन, शिष्य, गणधर, गण, आर्याएं, प्रवर्त्तनी, चतुर्विध संघ का परिमाण, जिन, मनः पर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, पूर्वधर, वादी, अनुत्तरविमानगति, उत्तरवैक्रिय, कितनों ने 492
SR No.002205
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherBhagwan Mahavir Meditation and Research Center
Publication Year2004
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size12 MB
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