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________________ पंच पञ्चाऽऽख्यायिकोपाख्यायिका-शतानि, एवमेव सपूर्वापरेण अध्युष्टाः कथानककोट्यो भवन्तीति समाख्यातम्। ज्ञाताधर्मकथानां परीता वाचनाः, संख्येयान्यनुयोगद्वाराणि, संख्येया वेढाः, संख्येयाः श्लोकाः, संख्येयाः नियुक्तयः, संख्येयाः संग्रहण्यः, संख्येयाः प्रतिपत्तयः। ____ता अंगार्थतया षष्ठमङ्गम्, दौ श्रुतस्कन्धौ, एकोनविंशतिरध्ययनानि, एकोनविंशतिरुद्देशनकालाः, एकोनविंशतिः समुद्देशनकालाः, संख्येयानि पदसहस्राणि पदाग्रेण, संख्येयान्यक्षराणि, अनन्ता गमाः, अनन्ताः पर्यवाः, परीतास्त्रसा, अनन्ताः स्थावरा, शाश्वत-कृत-निबद्ध-निकाचिता जिनप्रज्ञप्ता भावा आख्यायन्ते, प्रज्ञाप्यन्ते, प्ररूप्यन्ते, दर्श्यन्ते, निदर्श्यन्ते, उपदर्श्यन्ते। स एवमात्मा, एवं ज्ञाता, एवं विज्ञाता, एवं चरण-करण-प्ररूपणाऽऽख्यायते, ता एता ज्ञाताधर्मकथाः ॥ सूत्र ५१ ॥ भावार्थ-शिष्य ने पूछा-भगवन् ! वह ज्ञाताधर्मकथा-उदाहरण और तत्प्रधान कथा-अंग किस प्रकार है ? आचार्य उत्तर में कहने लगे-वत्स ! ज्ञाताधर्मकथा-श्रुत में ज्ञातों के नगरों, उद्यानों, चैत्य-यक्षायतनों, वनखण्डों, भगवान के समवसरण, राजा, माता-पिता, धर्माचार्य, . धर्मकथा, इस लोक और परलोक सम्बन्धी ऋद्धि विशेष, भोगों का परित्याग, दीक्षा, पर्याय, श्रुत का अध्ययन, उपधान-तप, संलेखना, भक्त-प्रत्याख्यान, पादपोपगमन, देवलोक में जाना, पुनः सुकुल में उत्पन्न होना, पुनः सम्यक्त्व की प्राप्ति का लाभ और फिर अन्तक्रिया कर मोक्ष की प्राप्ति इत्यादि विषयों का वर्णन है। ज्ञाताधर्मकथांग के दस वर्ग हैं, उनमें एक-एक धर्मकथा में पांच-पांच सौ आख्यायिकाएं हैं, एक-एक आख्यायिका में पांच-पांच सौ उपाख्यायिकाएं हैं और एक-एक उपाख्यायिका में पांच-पांच सौ आख्यायिका-उपाख्यायिकाएं हैं। इस तरह पूर्वापर सब मिलाकर साढ़े तीन करोड़ कथानक हैं, ऐसा कथन किया गया है। ज्ञाताधर्मकथा में परिमित वाचना, संख्यात अनुयोगद्वार, संख्यता वेढ, संख्यात श्लोक, संख्यात नियुक्तिएं, संख्यात संग्रहणिएं हैं, और संख्यात प्रतिपत्तिएं हैं। ___अंग की अपेक्षा से ज्ञाताधर्मकथांगसूत्र छठा है। दो श्रुतस्कन्ध, १९ अध्ययन, १९ उद्देशनकाल, १९ समुद्देशनकाल तथा पदाग्र परिमाण में संख्यात सहस्र हैं। इसी प्रकार संख्यात अक्षर, अनन्त अर्थागम, अनन्त पर्याय परिमित त्रस और अनन्त स्थावर हैं। शाश्वत-कृत-निबद्ध-निकाचित जिन-प्रतिपादित भाव, कथन, प्रज्ञापन, प्ररूपण, दिखाए गए, निदर्शन और उपदर्शन से सुस्पष्ट किए गए हैं। उक्त अंग का पाठक तदात्मकरूप, ज्ञाता और विज्ञाता हो जाता है। इस प्रकार
SR No.002205
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherBhagwan Mahavir Meditation and Research Center
Publication Year2004
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size12 MB
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