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________________ आचार सर्वांगीण वर्णन किया गया हो, उसे आचार कहते हैं, अथवा आचार प्रधान सूत्र को आचारांग सूत्र कहते हैं। ने ‘समणाणं निग्गंथाणं' ये दो पद व्यवहृत किए हैं, इनका आशय यह है कि सूत्र 'श्रमण' शब्द निर्ग्रन्थ, शाक्य, तापस, गैरुक और आजीविक इन पांच अर्थों में व्यवहृत होता है । निर्ग्रन्थ के अतिरिक्त शेष चार अर्थों के निराकरण करने के लिए श्रमण के साथ निर्ग्रन्थ शब्द का उल्लेख किया है, यथा निग्गन्थ, सक्क, तावस, गेरुय, आजीव, पंचहा समणा । इस सूत्र में आचार, गोचर, विनय, वैनयिक, शिक्षा, भाषा, अभाषा, चरण- करण, यात्रा-मात्रा एवं वृत्ति, इन विषयों का सविस्तर वर्णन है । आचारांग के अन्तर्वर्ती विषयों का परिचय यदि संक्षेप से दिया जाए तो पांच प्रकार के आचारों का सविस्तर विवेचन है, यही कहना सर्वथोचित होगा। प्रत्येक वाक्य में पांच आचार घटित होते हैं, यही इसमें विशेषता है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य, इनके साथ आचार शब्द का प्रयोग किया जाता है। ज्ञानाचार के आठ भेद हैं, जैसे कि काल, विनय, बहुमान, उपधान, अनिन्हवण, व्यंजन, अर्थ और तदुभय। नए ज्ञान की प्राप्ति या प्राप्त ज्ञान की रक्षा के लिए जो आचरण आवश्यकीय है, उसे ज्ञानाचार कहते हैं। उसकी आराधना के आठ प्रकार बताए गए हैं। आगमों में सूत्र पढ़ने की जिस समय आज्ञा दी है, उस समय में, उसी सूत्र का अध्ययन करना, इसे काल कहते हैं। ज्ञान और सद्गुरु की भक्ति करना विनय कहलाता है। ज्ञान और ज्ञानदाता के प्रति तीव्र श्रद्धा एवं बहुमान रखना, इसे बहुमान कहते हैं | आगम में जिस सूत्र के पढ़ने के लिए जिस तप का विधान किया गया है, अध्ययन करते समय, उसी तप का आचरण करना, इसे उपधान कहते हैं। क्योंकि आगमों का अध्ययन बिना तप किए फलदायक नहीं होता। ज्ञान को और ज्ञानदाता के नाम को न छिपाना इसे अनिन्हवण कहते हैं। सूत्रों का उच्चारण जहां तक हो सके, शुद्ध उच्चारण करना चाहिए। शुद्ध उच्चारण ही निर्जरा का हेतु हो सकता है, अशुद्ध उच्चारण अतिचार का कारण है। अतः शुद्धोच्चारण को ही व्यंजन कहते हैं। सूत्रों का अर्थ मनघड़न्त नहीं, अपितु प्रामाणिकता से करना चाहिए, इसी को अर्थ कहते हैं । तदुभय आगमों का पठन-पाठन निरतिचार से करना चाहिए। विधिपूर्वक अध्ययन एवं अध्यापन करना ही तदुभय कहलाता है, जैसे कि कहा भी है “काले, विणए, बहुमाणुवहाणे तह अणिण्हवणे । वंजण, अत्थ, तदुभए, अट्ठविहो नाणायारो ॥" आध्यात्मिक विकास से उत्पन्न एक प्रकार का आत्मिक परिणाम ज्ञेयमात्र को तात्त्विकरूप में जानने की, हेय को त्यागने की और उपादेय को ग्रहण करने की रुचि का होना ही निश्चय_ सम्यक्त्व है और उस रुचि के बल से होने वाली धर्मतत्त्व निष्ठा का नाम व्यवहार सम्यक्त्व है। सम्यक्त्व को दृढ़, स्वच्छ एवं उद्दीप्त करने का नाम दर्शनाचार है। *435 -
SR No.002205
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherBhagwan Mahavir Meditation and Research Center
Publication Year2004
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size12 MB
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