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स एष आचारः ॥ सूत्र ४६ ॥
पदार्थ-से किंतं आयारे ?-वह आचार नामक श्रुत क्या है ? आयारेणं-आचरांगश्रुत में, 'णं वाक्यालंकारे, समणाणं-श्रमण, निग्गंथाणं-निर्ग्रन्थों के, आयार-आचार, गोयरगोचर, भिक्षा ग्रहण विधि, विनय-ज्ञानादि विनय, वेणइअ-विनय-फल, कर्मक्षय आदि, सिक्खा-ग्रहण शिक्षा और आसेवन शिक्षा, तथा विनय शिक्षा, भासा-सत्य और व्यवहार भाषा, अभासा-असत्य और मिश्र, चरण-महाव्रत आदि, करण-पिण्डविशद्धि आदि, जाया-यात्रा, माया-परिमित आहार ग्रहण, वित्तीओ-नाना प्रकार के अभिग्रह इत्यादि विषय, आघविजंति-कहे गए हैं, से-वह आचार, समासओ-संक्षेप में, पंचविहे-पांच प्रकार का, पण्णत्ते-प्रतिपादन किया गया है, तंजहा-जैसे, नाणायारे-ज्ञानाचार, दंसणायारेदर्शनाचार, चरित्तायारे-चारित्र आचार, तवायारे-तप आचार, वीरियायारे-वीर्याचार।
आयारे णं-आचारांग में 'णं' वाक्यालंकार में, परित्ता वायणा-परिमित वाचना, संखेज्जा अणुओगदारा-संख्यात अनुयोगद्वार, संखिज्जा वेढा-संख्यात छन्द, संखेज्जा सिलोगा-संख्यात श्लोक, संखिज्जाओ निज्जुत्तीओ-संख्यात नियुक्ति, संखिज्जाओ पडिवत्तीओ-संख्यात प्रतिपत्ति हैं।
से णं-वह, अंगठ्ठयाए-आचार अंगार्थ से, पढमे अंगे-प्रथम अंग है, दो सुअक्खंधा-दो श्रुत-स्कन्ध हैं, पणवीसं अज्झयणा-पच्चीस अध्ययन हैं, पंचासीई उद्देसणकाला-85 उद्देशन काल हैं; पंचासीई समुद्देसणकाला-85 समुद्देशन काल, अट्ठारस्स पयसहस्साणि पयग्गेणं-पदाग्र-पद परिमाण में अट्ठारह हजार हैं, संखिज्जा अक्खरा-संख्यात अक्षर, अणंता गमा-अनन्त गम हैं, अणंता पज्जवा-अनन्त पर्याय हैं, परित्ता तसा-परिमित त्रस, अणंता थावरा-अनन्त स्थावर हैं, सासय-शाश्वत-धर्मास्तिकाय आदि, कड-कृतप्रयोगज और विश्रसाजन्य घट-संध्या अभ्रराग आदि, निबद्ध-स्वरूप से कहे गए हैं, निकाइआ-नियुक्ति आदि से व्यवस्थित, जिणपण्णत्ता-जिन प्रज्ञप्त, भावा-पदार्थ, आघविजंति-सामान्य रूप से कहे गये हैं, पन्नविज्जंति-नाम आदि से प्रज्ञापन किए गए हैं, परूविजंति-विस्तार से कहे गए हैं, दंसिज्जंति-उपमा से दिखाए गए हैं, निदंसिर्जति-हेतु आदि से दिखलाए गए हैं, उवदंसिज्जंति-निगमन से दिखलाए गए हैं।
से एवं आया-आचारांग का ग्रहण करने वाला तद्रूप हो जाता है, एवं नाया-इसी प्रकार ज्ञातां, एवं विण्णाया-इसी प्रकार विज्ञाता हो जाता है। एवं चरण-करण-इस प्रकार चरण-करण की आचारांग में, परूवणा-प्ररूपणा, आघविज्जइ-कही गयी है, से तं आयारे-इस प्रकार आचारांग श्रुत है। ___भावार्थ-शिष्य ने प्रश्न किया-भगवन् ! वह आचारांग-श्रुतं किस प्रकार है ?
आचार्य उत्तर में बोले-आचारांग में बाह्य-आभ्यन्तर परिग्रह से रहित श्रमण निर्ग्रन्थों का आचार-गोचर-भिक्षा के ग्रहण करने की विधि, विनय-ज्ञानादि की विनय, विनय
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